हर जनि बिसरब मो ममिता
har jani bisrab mo mamita
हर जनि बिसरब मो ममिता, हम नर अधम परम पतिता।
तुम सन अधम उधार न दोसर, हम सन जग नहिं पतिता॥
जम के द्वार जबाव कौन देब, जखन बुझत निज गुनकर बतिया।
जब जम किंकर कोपि पठाए त, तखन के होत घरहरिया॥
भन विद्यापति सुकवि पुनित, मति संकर बिपरित बानी।
असरन सरन चरन सिर नाओल, दया करु दिय सुलपानी॥
हे शिव! आप मेरे प्रति अपने ममत्व को न भूलें, क्योंकि आपकी यह ममता ही तो पतितात्माओं के उद्धार की एक मात्र आशा है और मैं नीच और अत्यंत पापी व्यक्ति हूँ। आपके सदृश्य पतितात्माओं का उद्धारक कोई दूसरा नहीं है, और मेरे समान पापी भी इस सारे संसार में दूसरा नहीं होगा। जब अंतिम समय में यम के द्वार पर उपस्थित किया जाऊँगा और वहाँ यमदूत मेरे गुणों के विषय में पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूँगा! जब यमदूत मेरे पाप कृत्यों के दंड स्वरूप मुझे नरक को पठाएंगे तो उस क्षण आप ही मेरे सहायक हो सकते हैं। मैं सुकवि विद्यापति अपनी विपरीत वाणी से, अर्थात् पापयुक्त वाणी से पवित्र बुद्धि वाले शंकर का स्मरण करता हूँ। आप अशरण-शरण हैं, आश्रयहीन के आश्रयदाता हैं। मैं आपके समक्ष अत्यंत दीन भाव से अपने आप को समर्पित करता हूँ। हे देव! मुझे अपनी करुणा का दान दो।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 127)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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