Font by Mehr Nastaliq Web

षट् दर्शन−खंडन

shat darshan−khanDan

सरहपा

सरहपा

षट् दर्शन−खंडन

सरहपा

और अधिकसरहपा

    (1) ब्राह्मण—
    (ब्रम्हणेंहि म जानंतहि भेउ। एवइ पढिअए ए च्च्उवेए॥
    मट्टि (पाणि कुस लई पढंतं। घरहिं बइसी अगनि हुणंतं॥
    कज्जे विरहिअ हुअवह होमें। अक्खि धड़हाविअ कडुएं घूमें॥
    एकदंडि त्रिदंडी भअवँ बेसें। विधुआ होइअइ हंस उएसें॥
    मिच्छेहिं जग वाहिअ भुल्लें। धम्माधम्म ण जाणिअ तुल्ले॥

    (2) पाशुपत—
    अइरिएहिं उद्दूलिअ च्छारें। सीससु वाहिअ ए जड−भारें॥
    घरही बइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घंटा चाली॥
    अक्खि णिवेसी आसण बंधी। कझणेहिं खुसखुसाइ जण धंधी॥
    रण्डी−मुण्डी अण्णवि बेसें। दिक्खिज्जइ दक्खिण−उद्देसें॥

    (3) जैन—
    दीहणक्ख जइ मलिणें बेसें। णग्गल होइ उपाडिअ केसें॥
    खबणेहिं जाण विडंबिअ बेसें। अप्पण बाहिअ मोक्ख उबेसें॥
    जइ णग्गाविअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह।
    लोमुपाडणें अत्थि सिद्धि, ता जुबइ णिअंबह॥
    पिच्छीगहणे दिट्ठ मोक्ख (ता मोरह चमरह)।
    छे भोअणें होइ ज ण, ता करिह तुरं गह॥
    सरह भणइ खबणाण) मोक्ख, महु किंपि न भावइ।
    तत्त−रहिअ काअ न ताव, पर केवल साहइ॥

    (4) बौद्ध—
    (तसु परि आणें अण्ण न कोई। अबरे (ग) अणे सज्जइ सोई॥
    सहज च्छाडी णिब्बाणेहिं धाविउ। णउ परमत्थ एकवि साहिउ॥
    जो जसु जेण होइ संतुट्ठ। मोक्ख कि लब्भईं झाण−पविट्ठ॥
    किन्तह दीपे किंतह णेवेज्जे। किंतह किज्जइ मंतह भावें॥
    किंतहि न्तित्थ तपोवण जाइ। मोक्ख कि लब्भइ (पाणि न्हाइ)॥
    च्छड्डहु रे आलीका बन्धा)। सो मुञ्चहु जो (अच्छहु जो (अच्छहु धन्धा)॥
    नाहि सो (दिट्ठि जो ता उ ण ल (क्खइ)। एत्तवि वरगुरुपाआ पेक्खइ॥
    जइ (गुरु−वुत्त) हो (हिअहि पईसइ। णिच्चिअ हत्थे ठवि) अउ दीसइ॥
    सरह भणइ जग−वाहिअ आलें। णिअ सहाव ण लक्खिअ बालें॥

    (1) ब्राह्मण—

    ये ब्राह्मण बिना ज्ञान के चारों वेद पढ़ते हैं। ये लोग वेद के भेद (रहस्य) तक को नहीं जानते। मिट्टी, पानी, हरी दूब सामने रखकर तथा अग्नि प्रज्वलित कर पूजा करने बैठ जाते हैं। अर्थात् ये लोग मात्र दिखावा करते हैं। ये लोग बिना मतलब के अग्नि में हवन−सामग्री जलाते हैं तथा उससे उत्पन्न धुएँ से आँखों से आँसू बहाए जाते हैं। कभी ये एक दंड पर खड़े होते हैं तो कभी ये तीन दंड पर खड़े होते हैं। भगवा वेश इनका आभूषण है। अपने को विद्वान समझ हंस को उपदेश देते हैं यानी बगुला भगत बनकर हंसों को उपदेश देते हैं। अर्थात् ज्ञानी बनकर जन−साधारण को उपदेश देकर ठगते हैं। वे धर्म−अधर्म की तुलना करना नहीं जानते, इसी कारण बाहरी भूल−भुलैया में रमे हुए हैं। अर्थात् व्यर्थ के कार्यों में लगे हुए हैं। आत्म−ज्ञान से विरल हो भौतिकता में लीन हैं।

    (2) पाशुपत—

    शैव−धर्म को मानने वाले ये साधु शरीर में राख लपेटे रहते हैं तथा सिर पर लंबी जटा धारण किए रहते हैं। घर में बैठकर दीपक जलाते हैं तथा घर के एक कोने में बैठ कर घंटी बजाते हैं, आँखों को बंद कर आसन लगाकर बैठते हैं तथा भोली जनता को ठगने हेतु कान में फुसफुसाकर बातें करते हैं। वनवासी तथा मुंडधारी आदि अन्य भेष धारण करके दक्षिणा मांगते हुए परिभ्रमण करते हुए दिखाई पड़ते हैं।

    (3) जैन—

    बड़े−बड़े नाख़ून वाले तथा मलिन वेशधारी ये साधु नंगे रहते हैं तथा नंगे होकर संपूर्ण शरीर के बाल उखड़वाते हैं। क्षपणक का ज्ञान इनके वेश को सुसज्जित करता है। इस वेश में इन्हें अंदर और बाहर मोक्ष ही मोक्ष दिखाई पड़ता है। इसी उद्देश्य से वे श्रमणक का वेश धारण करते हैं। यदि नंगेपन से मोक्ष प्राप्त होता तो कुत्ते और सियार को अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता। शरीर के बालों को उखाड़ने पर यदि सिद्धि प्राप्त हो जाए तो रोम रहित नितंबों वाली युवतियों को तो सहज ही मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए। यदि मोर पंखों से मोक्ष दिखाई देता है तो उन चर्मकारों और मोरों को भी मोक्ष प्राप्त हो जाना चाहिए जो पशुओं का चमड़ा रोम उतारा करते हैं तथा पक्षी अपने पंखों को स्वयं उतारा करते हैं। जूठन खाने से यदि ज्ञान प्राप्त हो जाए तो घोड़े भी ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, परंतु ऐसा नहीं होता। सरहपा कहते हैं कि श्रमणकों का ऐसा मोक्ष मुझको बिल्कुल रुचिकर नहीं लगता। भोजन तत्व से रहित काया में कोई जान नहीं होती फिर भी ये साधु साधना में लीन होते हैं।

    (4) बौद्ध—

    उसके ज्ञान को कोई नहीं जानता, कोई गगन−मंडल में आसक्त है क्योंकि वे सहजता का छोड़कर निर्वाण की प्राप्ति हेतु कठिन मार्ग का अनुसरण करते हैं, परमार्थ की चिंता छोड़, सिर्फ़ वे स्वयं पर ध्यान देते हैं। अपना हित साधते हैं। वे जैसे हैं, वैसे में ही संतुष्ट हैं, मोक्ष की प्राप्ति हेतु ध्यान में लीन होते हैं। दीप और नैवेद्य से क्या होगा तथा वहाँ मंत्र भी क्या करेगा? वे तप करने घनघोर जंगल में जाते हैं, मोक्ष क्या जल में नहाने से प्राप्त होता है? पाखंडियो! मिथ्या प्रपंच को छोड़ दो और जो तुम में मूढ़ता व्याप्त है, उसे त्याग दो। जो नेत्रहीन हैं, जो देख नहीं सकते वे भी गुरु के वरदान से आँख वाले हो जाते हैं अर्थात् वह दिव्य दृष्टि तो गुरु के चरणों की सेवा से ही प्राप्त होती है। यदि उसने गुरु की वाणी को हृदय में बिठा लिया तो निश्चित रूप से वह स्वावलंबी अर्थात् आत्मनिर्भर होकर सही दिशा को प्राप्त कर लेता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दोहाकोशः भाषा वैज्ञानिक अध्ययन (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : डा० रमाइंद्र कुमार
    • प्रकाशन : मॉ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन
    • संस्करण : 1993

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए