सखी मेरी नींद नसानी हो
sakhi meri neend nasani ho
सखी मेरी नींद नसानी हो।
पिव के पंथ निहारत सिगरी रैन विहानी हो॥
सब सखियन मिल सीख दई, मैं एक न मानी हो।
बिन देखे कल नहीं परत, जिया ऐसी ठानी हो॥
अंग छीन व्याकुल भई, मुख पिवपिव बानी हो।
अंतर् वेदन विरह की वह पीर न जानी हो॥
ज्यों चातक घन को रटै, मछरी जिमि पानी हो।
मीरां व्याकुल विरहणी सुध बुध बिसरानी हो॥
ऐ सखी मेरी नींद खो गई है। सारी रात अपने प्यारे की राह देखकर गुज़ारी है। सभी सहेलियों ने मिलकर नसीहत दी, मगर मैंने एक की न मानी। बग़ैर पिया को देखे चैन नहीं पड़ता। अब तो कुछ करने की जी में ठानी है। बदन सूख गया है, बेचैनी बढ़ गई और होंठ सिर्फ़ अपने प्यारे का नाम ले रहे हैं। मैं अंदर-ही-अंदर विरह की आग में जल रही हूँ और उसे मेरे दर्द की ख़बर भी नहीं। जैसे चातक बादलों को आवाज़ देता है, जैसे मछली पानी के लिए तड़पती है इसी तरह विरह की मारी मारी बेचैन हो रही हूँ और अपनी सुध-बुध भूल चुकी हूँ।
- पुस्तक : मीरा वाणी (पृष्ठ 31)
- रचनाकार : मीरा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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