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सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए

sakhi he, ki puchhsi anubhav mo.e

विद्यापति

विद्यापति

सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    सखि हे, कि पुछसि अनुभव मोए।

    सेह पिरिति अनुराग बखानिअ तिल-तिल नूतन होए॥

    जनम अबधि हम रूप निहारल नयन तिरपित भेल॥

    सेहो मधुर बोल स्रवनहि सूनल स्रुति पथ परस गेल॥

    कत मधु-जामिनि रभस गमाओलि बूझल कइसन केलि॥

    लाख लाख जुग हिअ-हिअ राखल तइओ हिअ जरनि गेल॥

    कत बिदगध जन रस अनुमोदए अनुभव काहु पेख॥

    विद्यापति कह प्रान जुड़ाइते लाखे मीलल एक॥

    सखी, अनुभव की बातें मुझसे क्या पूछती हो? उस प्रीति और अनुराग का बखान कैसे करूँगी! वह तो तिल-तिल करके नया होता जाता है, पुराना पड़ ही नहीं सकता। जीवन-भर हमने उस रूप को निहारा, आँखें नहीं भरीं। और वे मीठे बोल कानों से सुनती रही, मगर कान प्यासे ही बने रहे। बसंत की कितनी रातें रंगरलियों में गुज़ार दीं, फिर भी पता नहीं चला कि काम-केलि क्या होती है! लाख-लाख युग उसे हृदय के अंदर रखा, फिर भी हृदय की जलन गई! कितने ही रसिक जन रस का उपभोग करते हैं। परंतु वे उसको समझ नहीं पाते, देख पाते हैं। विद्यापति का कहना है—“प्राणों को जुड़ाने के लिए लाख में एक भी नहीं मिला।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 131)
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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