प्रभात वर्णन
parbhat warnan
सुप्पहाय-दहि-अस-रवण्णउ। कोमल-कमल-किरण-ढल-छण्णउ॥
जय-हरें पइसारिउ पइसंतें। णावइ मंगल-कलणु वसंतें॥
फागुण-खलहों दूउ णीसारिउ। जेण विरहि-जुण कह व ण मारिउ॥
जेण वणप्फइ-पय विब्माडिय। फल-दल-रिद्धि-मडप्फर साडिय॥
गिरिवर गाम जेण धूमाविय। वण-पट्टण-णिहाय संताविय॥
सरि-पवाह-मिहुणइँ णासंतइँ। जेण वरुण-घण-णियलैंहिँ घित्तइँ॥
जेण उच्छु-विड जंतेहिँ पीलि। पव मंडव-णिरिक्क आवीलिय॥
जासु रज्जें पर रिद्धि पलासहों। तहों मुहु मइलेंवि फग्गुण मासहों॥
लाल-लाल सूर्य-पिंड ऐसा जान पड़ता था मानो प्रवेश करते वसंत ने जगत रूपी घर में कोमल किरणों के दल से ढका हुआ, सुप्रभात रूपी दधि-अंश से सुंदर मंगल-कलश ही रख दिया है। वसंत ने फाल्गुन के दुष्टदूत पाले (हिम) को भगा दिया। उसने केवल विरही जनों को किसी तरह मारा भर नहीं था, वनस्पति रूपी प्रजा को भी नष्ट कर दिया था। फल-ऋद्धि का अहंकार चूर-चूर हो गया था। पहाड़ों के समूह धूम-धूसरित हो रहे थे, बर्फ़ जम जाने से वनरूपी नगरी को यह बहुत ही संतप्त कर रहा था। उसने नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया था और नदी, मेघ और जलबंधों को तहस-नहस कर डाला था। यंत्रों से उसने इक्षुवन को खूब पीड़ित किया, प्रपामंडपों को भी उसने ख़ूब सताया था। उसके राज्य में वह केवल पलाश की वैभव-वृद्धि कर रहा था। वसंत राजा ने ऐसे उस फाल्गुन माह का मुँह काला कर दिया।
- पुस्तक : पउम चरिउ (पृष्ठ 214)
- संपादक : हंसराज बच्छराज नाहटा
- रचनाकार : स्वयंभू
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1944
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