कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी
kunj bhawan sen nikasali re rokal giridhari
कुंज भवन सएँ निकसलि रे रोकल गिरिधारी।
एकहि नगर बहु माधव हे जनि करु बटमारी॥
छाड़ कान्ह मोर आँचर रे फाटत नब सारी।
अपजस होएत जगत भरि हे जनि करिअ उघारी॥
संगक सखि गुआइलि रे हम एकसरि नारी।
दामिनि आए तुलाएलि हे एक राति अँधारी॥
भनहि विद्यापति गाओल रे सुनु गुनमति नारी।
हरिक संग किछु डर नहि हे तोंहे परम गमारी॥
कुंज-भवन से निकली ही थी कि गिरधारी ने रोक लिया... । माधव, बटमारी मत करो! हम एक ही नगर के रहने वाले हैं। कान्हा, आँचल छोड़ दो! मेरी साड़ी अभी नई-नई है, फट जाएगी! छोड़ दो! दुनिया में बदनामी फैलेगी, मुझे नंगी मत करो। साथ की सहेली आगे बढ़ गई है। मैं अकेली हूँ। एक तो रात ही अँधेरी है, उस पर बिजली भी कौंधने लगी—'हाय, मैं अब क्या करूँ?' विद्यापति ने कहा—“तुम तो बड़ी गुणवती हो! हरि से भला क्या डरना! तुम गँवार हो! गँवार न होतीं तो कान्हा से क्यों डरतीं!”
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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