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कवितावली (उत्तर कांड से) (एन.सी. ई.आर.टी)

kavitavli (uttar kaanD se) (en. si. ii. aar. tee)

तुलसीदास

तुलसीदास

कवितावली (उत्तर कांड से) (एन.सी. ई.आर.टी)

तुलसीदास

और अधिकतुलसीदास

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    कवित्त

    किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
    चाकर, चपल नट, चोर, चार चेटकी।
    पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
    अटत गहन-गन अहन अखेटकी॥
    ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
    पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
    'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
    आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी॥


     
    खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
    बनिक को बनिज, ति चाकर को चाकरी।
    जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
    कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई, का करी?'
    बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
    साँकरे सबैं पै, राम! रावरें कृपा करी।
    दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
    दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥
     
     

    सवैया 


    धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
    काहू की बेटीसों बेटा न व्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
    तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
    माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।

     

    —'कवितावली' से 
     

     

    लक्ष्मण-मूर्छा और राम का विलाप

     

    दोहा

    तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत। 
    अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥ 
    भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। 
    मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥


    उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥ 
    अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ॥ 
    सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥ 
    मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥


    सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥ 
    जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥ 
    सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥ 
    अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥ 
    जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥ 
    अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही॥ 
    जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई॥ 
    बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥ 
    अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥ 
    निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा। 
    सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥ 
    उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥ 
    बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥ 
    उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥

    सोरठा

    प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर 
    आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥

    हरषि राम भेटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
    तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥ 
    हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥ 
    कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥ 
    यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति विषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥ 
    ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥ 
    जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥ 
    कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥ 
    कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
    तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे॥ 
    दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥ 
    अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥

    दोहा

    सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। 
    जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥

    —'रामचरितमानस' के लंका कांड से

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    तुलसीदास

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    स्रोत :
    • पुस्तक : आरोह (भाग-2) (पृष्ठ 41)
    • रचनाकार : तुलसीदास
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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