मोहन रूप-अनूप किसोरी।
मुख-लावण्य बिलोक लजाहीं, इंदु अनेकन काम करोरी॥
घुंघरारी अलकावलि माथें, नील कमल पर भ्रमर उड़ै री।
दीरघ नैन मैन मदमाते, स्रवन लागि कछु कह्यौ चहैं री॥
भृकुटि बंक इद्र-धनु निंदक, अधर बिंब अपकर्ष कियैं री।
अद्भुत चिबुक चारु दसनावलि, मृदु मुसक्यान-मिठान हिये री॥
बोलनि चलनि बंक चितवनियाँ, अनुपम बँसुरी बिसद बजावै।
‘ललितमाधुरी’ छैल-चिकनियाँ, देखत बनै कहत नहिं आवै॥
- पुस्तक : चैतन्य मत और ब्रज साहित्य (पृष्ठ 331)
- संपादक : प्रभुदयाल मीतल
- प्रकाशन : साहित्य संस्थान, मथुरा
- संस्करण : 1962
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