जोगिया एक हम देखलौं गए माई
jogiya ek hum dekhlaun gaye mai
जोगिया एक हम देखलौं गए माई।
अनहद रूप कहलों नहि जाई।
पंच बदन तिन नयन विसाला।
बसन बिहुन ओढ़न बघछाना॥
सिर बहे गंग तिलक सोहे चंदा।
देखि सरूप मिटल दुख दंदा।
जाहि जोगिया लै रहलि भवानी।
मन आनलि बर कौन गुन जानी॥
कुछ नहि सिल नहिं तात महतारी।
बएस दिनक थिक लछ जुग चारी।
भन विद्यापति सुन ए मनाइनि।
एहो जोगिया थिक त्रिभुवन दानि॥
हे सखी मैना! हमने एक योगी को देखा है, उसके रुप की सुंदरता अनिर्वचनीय है। उसके पाँच मुख हैं और कान तक छूने वाले तीन विशाल नेत्र हैं। वह वस्त्र रहित है और व्याघ्र चर्म ओढ़े हुए हैं। उसके शीश से (भव-ताप-विनाशिनी) सुरसरि प्रवाहित हो रही हैं और तिलक के रूप में चंद्रमा सुशोभित है। ऐसे पावन तथा शीतल स्वरूप को देखकर सांसारिक क्लेश समाप्त हो जाते हैं। जिस योगी के लिए पार्वती तपस्या-रत रहीं, न जाने उसके कौन से गुण पर रीझ कर उसने उसे पति रूप में मन में वरण कर लिया। इस योगी का न तो कोई कुल ही है और न ही उसमें कोई शील अर्थात् गुणमयता ही है, उसके माता तथा पिता भी नहीं हैं। उसकी आयु भी चार लाख युग अर्थात् लाखों असंख्य वर्षों की है। तात्पर्य यह है कि यह योगी संबंधातीत, गुणातीत एवं कालातीत ब्रह्म है। विद्यापति कहते हैं कि मैना! सुनो, यह योगी त्रिलोक का दानी है।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 137)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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