सिरजसि बेलि फूल ओ(औ) बासूं(सू)।
सिरजसि भ(भं)वर न छाडहि पासू।
सिरजसि सीतर चंदनु सुहावा।
सिरजसि नाग तिही यु(जु) बिढवि(बिढावा)।
सिरजसि कोइल(लि) मधुरी बैनी।
सिरजसि दादुर चवै यु (जु) रैनी।
सिरजसि क(कं)वर पदम जर माहां।
सिरज[सि]पानौ यु(जु)अछैहि बाहा(छाहां)।
सिरजसि अगनि जरत यों (जो) दहा।
सिरजसि कनिक झार यों (जो) सहा।
सिरजसि पानि अठारा(र)ह सिरजसि अगनित मूरि।
सिरजसि कत अगुरायनि (आकरायनि?) सबै रहा भरपूरि॥
उसने वल्लियों, फूलों और उनकी सुवासों की रचना की और उन भ्रमरों की रचना की जो (उनका) पार्श्व नहीं छोड़ते हैं। उसने शीतल और सुख देने वाले चंदन की रचना की और उन नागों को भी उसने रचा जो उसका उपभोग करते हैं। उसने मधुर वचनों वाली कोकिला की रचना की और उस दादुर को भी उसने रचा जो रात्रि में बोलता है। जल में उतपन्न होने वाले कमल और पद्म को उसने रचा और उसके पर्णों की भी रचना की जो छाये रहते हैं। दग्ध करने वाली अग्नि को रचने वाले ने ही उस स्वर्ण की भी रचना की जो उस अग्नि की ज्वाला को सहन करता है। उसने अट्ठारह प्रकार के प्राणियों की और अगणित जड़ी-बूटियों की रचना की। उसने कितनों की ही आकर पदार्थों के रूप में रचना की, और वह सभी में व्याप्त हो रहा।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 3)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
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