पहलै गाउ(उं) सिरजन हारू।
जिनि सिरज्या यह दौ(दे)स वि(दि) यारू।
सिरजसि धरती औरु अगासू।
सिरजसि मेर म (मं) दर कबिलासू।
सिरजसि चांद सुरुज उजियारा।
सिरजा (सिरजसि?) सरग नषत की मारा।
सिरजसि छाह सीव औ धूपा।
सिरजयि (सि) किर तन और सरूपा।
सिरजसि मेघु पवन अ(अं)धकारा।
सिरजसि बीज करै चमकारा।
जाकर सभै पिरथमी सिरजसि(?) कह्यो (ह्यों) येक सो गाई।
हीय गहवर मन हुल्हसै दूसर चित न समाई॥
पहले मैं सृष्टिकर्ता का गुणगान करता हूँ, जिसने इस देश-प्रदेश की सृष्टि की है। जिसने धरती और आकाश की सृष्टि की है। जिसने मेरु, मन्दर और कैलास की सृष्टि की है। जिसने प्रकाशपूर्ण चंद्र और सूर्य की सृष्टि की है। जिसने आकाश और नक्षत्र-माला की सृष्टि की है। जिसने छाया, शीत और धूप की रचना की है। जिसने किल शरीर और रूपों की सृष्टि की है। जिसने मेघ, पवन और अंधकार की सृष्टि की है और जिसने उस विद्युत की सृष्टि की है जो चमत्कार करती है। जिसकी सृष्टि की हुई समस्त पृथ्वी है, उस एक का कथन मैंने गा कर किया है। उसके स्मरण से हृदय हर्षित होता और मन उल्लसित होता है, और अन्य कोई चित्त में नहीं समाता है।
- पुस्तक : चांदायन (पृष्ठ 1)
- रचनाकार : मुल्ला दाउद
- प्रकाशन : प्रामाणिक प्रकाशन, आगरा
- संस्करण : 1967
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