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मनायो न मानें मेरौ हौं हारी

manayo na manen merau haun hari

कुंभनदास

कुंभनदास

मनायो न मानें मेरौ हौं हारी

कुंभनदास

और अधिककुंभनदास

    मनायो मानें मेरौ हौं हारी।

    सिखवत-सिखवत जाम गये पें एकौ विचारी॥

    तूं गुन रूप गरव का भूलति? समुझति नाहिं घोष-नारी।

    ‘कुंभनदास' प्रभु बहु-नाइक (लाल) गोवर्द्धनधारी॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : अष्टछाप के कवि (पृष्ठ 125)
    • संपादक : हरगुलाल
    • रचनाकार : कुम्भनदास
    • प्रकाशन : प्रकाशन विभाग, भारत सरकार
    • संस्करण : 2008

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