मैं तो खेलूं प्रभु के संग
mai.n to kheluu.n prabhu ke sa.ng horii ra.ngabhrii
मैं तो खेलूं प्रभु के संग होरी रंगभरी।
जित देखूं तित रम रहौ रे सबमें व्यापक है हरी॥
सब कुछ भयो दयो सुख जनको अद्धुत लीला करी।
नाना जतन किये मिलबे के प्रीतम पाए हम घरी॥
पावत ही सब भ्रम भय भागे आवागमन छूटीलरी।
जीवन्मुक्त भयो मन मेरो व्याधा सब आशा जरी॥
अमरलोक पद फगुआ पाओ जन्म मरण विपता टली।
चरणदास गुरु किरपा कीन्हीं सहजो सब आनंद रली॥
मैं तो परमात्मा के साथ रंग भरी होली खेल रही हूँ। जहाँ देखूँ, वहाँ वह व्याप्त है, वह तो घट-घट में व्याप्त है। हरि ने अपनी लीला से से मनुष्य-मात्र को सुखी किया है। मैंने अनेक यत्न किए, परमात्मा को पाने के लिए मैं मारी-मारी फिरी लेकिन वह प्रीतम तो मेरे घर में ही था। अर्थात वह तो मेरे मन में ही समाया हुआ था। उसका साक्षात्कार करने मात्र से मेरे सारे भ्रम दूर हो गए और मेरा सांसारिक आवागमन छूट गया। मेरा मन जीवन-मुक्त हो गया और लालसा और कामनाओं की सारी व्याधियाँ जल गईं। मैंने अमरपद पाया और जीवन-मरण के बंधन से मुक्त हो गई। सहजो बाई कहती है कि गुरु चरणदास ने मुझ पर कृपा की जिससे मेरा मन आनंद से सराबोर हो गया।
- पुस्तक : सहजप्रकाश (पृष्ठ 98)
- रचनाकार : सहजोबाई
- प्रकाशन : श्रीवेंकटेश्वर स्टीम् प्रेस, बंबई
- संस्करण : 1922
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