माधब तोहें जनु जाह बिदेस
madhab tohen janu jah bides
माधब तोहें जनु जाह बिदेस।
हमरा रंग रभस लएजएबह, लएबह कौन सनेस॥
बनहिं गमन करु होएति दोसर, मति बिसरि जाएब पति मोरा।
हीरा मनि मानिक एको नहिं माँगब, फेरि माँगब पहु तोरा॥
जखन गमन करु नीर नयन भरु, देखहु न भेल पहु ओरा।
एकहि नगर बसि पहु भेल परबस, कइसे पुरत मन मोरा॥
पहु संग कामिनि बहुत सोहागिनि, चंदै निकट जइसे तारा।
भनइ विद्यापति सुन बर जौबति, अपन हृदय धरु सारा॥
हे माधव! तुम विदेश मत जाओ। तुम्हारे बिना मेरा सारा जीवन ही प्रेम की उल्लसित अभिलाषाओं से रहित हो जाएगा। परंतु वहाँ से मेरे लिए उसके बदले में कौन सा उपहार लाओगे? बन में जाते ही अर्थात् परदेस चले जाने पर तुम्हारी दूसरी ही बुद्धि हो जाएगी, और हे प्रियतम! तुम मुझको विस्मृत कर दोगे। मैं हीरा, मणि और माणिक्य इनमें से एक भी वस्तु नहीं माँगती हूँ, मैं केवल तुम्हारा प्रत्यागमन माँगती हूँ। (राधा के आग्रह को कृष्ण ने ठुकरा दिया और वे चले ही गए। नायिका अपनी सखी से कहती है कि) जिस क्षण मेरे प्रियतम ने गमन किया, उस समय मेरे नेत्र अश्रु-जल-पूरित हो गए, जिसके कारण मैं अपने प्रियतम की ओर देख भी न पाई। जब एक ही नगर में रहता हुआ भी मेरा प्रिय दूसरे के वशीभूत हो गया है, तब मेरा मन कैसे संतोष धारण करे। प्रियतम के सामीप्य से स्त्री वैसे ही सौभाग्य से सुशोभित रहती है, जिस प्रकार चंद्रमा के सामीप्य से तारा शोभायमान होता है। विद्यापति कहते हैं कि श्रेष्ठ सुंदरी! सुनो, तुम अपने मन में धैर्य धारण करो।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 307)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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