माधव कठिन हृदय परवासी
maadhav kathin hriday parvaasii
माधव कठिन हृदय परवासी।
तुझ पेअसि मोयँ देखल बियोगिनि अबहु पलटि घर जासी॥
हिमकर हेरि अबनत कर आनन करु करुना पथ हेरी।
नयन काजर लए लिखये बिधु तुंद भये रह ताहेरि सेरी॥
दखिन पवन बह से कइसे जुबति सहकर कबलित तनु अंगे।
गेल परान पास दये राखये दस नख लिखए भुजंगे॥
मीनकेतन भय सिब-सिब सिब कये धरनि लोटाबए देहा।
कर रे कमल लए कुच सिरफल दए सिब पूजए निज गेहा॥
परभृत के डर पास लए कर बायस निकट पुकारे।
राजा सिबसिंघ रूपनरायन करथु बिरह उपचारे॥
हे कृष्ण! तुम जैसे प्रवासी का हृदय अत्यंत निष्ठुर है। मैंने तुम्हारी विरहिणी प्रेयसी की हालत देखी है, यदि उसके प्राण बचाना चाहते हो तो तुम अब भी लौट कर घर चले जाओ। वह चंद्रमा को देख कर अपना मुख नीचा कर लेती है और तुम्हारी प्रतीक्षा करती रहती है। चंद्रमा उसके विरह को सघन कर देता है इस कारण वह आँखों के काजल से राहु का चित्र बनाकर उसकी शरण लेती है। मलय-पवन प्रवाहित होती है, उसको वह कोमल युवती कैसे सह सकती है! वह अपनी दसों अंगुलियों के नाखूनों से सर्प का चित्र बनाती है और अपने जाते हुए प्राणों में आशा का संचार कर उनकी रक्षा करने का उपक्रम करती रहती है। वह रमणी कामदेव से भयभीत हो शिव-शिव कहती हुई धरती पर अपने शरीर को लुंठित करती है (ताकि वह धूल-धूसरित होकर कामदेव के लिए शिव रूप में प्रतिभासित हो; और कामदेव उसे प्रताड़ित न करे।) वह हाथ रूपी कमल में उरोज रूपी श्रीफल को (नैवेद्य रूप में) रख कर अपने घर में ही शिव का पूजन करती है। वह कोकिल (के कामोद्दीपक मधुर स्वर) से भयभीत होकर खीर को हाथ में धारण कर कौवे को पुकारती है। (जिससे कि कौवे से भयभीत होकर कोकिल अपने स्वरों से उसे काम-भावना से मथित न करे। विद्यापति कहते हैं कि रूपनारायन राजा शिवसिंह आप उसके
विरह को दूर करने का उपाय करें।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 320)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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