लोचन धाए फेधाएल हरि नहिं आएल रे
lochan dhaye phedhayel hari nahin aayel re
लोचन धाए फेधाएल हरि नहिं आएल रे।
सिब-सिब जिबओ न जाए पास अरुझाएल रे॥
मन करे तहाँ उडि जाइअ जहाँ हरि पाइअ रे।
पेम परस-मनि जानि आनि उर लाइअ रे॥
सपनहु संगम पाओल रंग बढ़ाओल रे।
से मोरा बिहि बिघटाओल निंदओ हेराएल रे॥
भनइ विद्यापति गाओल धनि धइरज धर रे।
अचिरे मिलत तोहि बालमु पुरत मनोरथ रे॥
नयन-पाँवड़े बिछा कर मैंने प्रियतम की बाट जोही है, फिर भी मेरे प्रिय नहीं आए। हे प्रभु! अब जीवित नहीं रहा जाता अथवा मेरे प्राण भी नहीं निकलते, यह प्रियतम के आने की आशा में उलझे हुए हैं। इच्छा होती है कि मैं उड़ कर वहीं चली जाऊँ, जहाँ कि मेरे प्रिय मुझे प्राप्त हो सकें। मैं उन्हें प्रेम की पारसमणि जान कर हृदय से लगा लूँ। मैंने प्रियतम से स्वप्न में ही समागम किया, मात्र उतने से ही मेरे प्राणों में प्रणय का रंग पड़ गया, किंतु विधाता ने मेरे इस सुख को भी नष्ट कर दिया, (क्योंकि) उसने मेरी नींद हर ली। विद्यापति गायन करते हुए कहते हैं कि हे सुंदरी! तुम धैर्य धारण करो। तुम्हारे प्रियतम पति शीघ्र ही तुमसे मिलकर तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 309)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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