केसव! कहि न जाइ का कहिये
kesav! kahi n jaa.i ka kahiye
केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥
हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता! हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन-ही-मन आपकी लीला समझकर रह जाता हूँ। कैसी अद्भुत लीला है कि इस संसार-रूपी चित्र को निराकार चित्रकार ने शून्य की दीवार पर बिना रंग के संकल्प से ही बना दिया। यह महामायावी-रचित माया चित्र किसी प्रकार धोने से नहीं मिटता। (साधारण चित्र जड़ है, उसे मृत्य का डर नहीं लगता परंतु) इसको मरण का भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखने से दुःख होता है परंतु) इस संसार रूपी भयानक चित्र की ओर देखने से दुःख होता है। सूर्य की किरणों में जो कल दिखाई देता है, उस जल में एक भयानक मगर रहता है। उस मगर के मुँह नहीं है, तो भी वहाँ जो भी जल पीने जाता है, चाहे वह जड़ हो या चेतन, यह मगर उसे ग्रस लेता है। भाव यह कि यह संसार सूर्य की किरणों में जल के समान भ्रमजनित है। जैसे सूर्य की किरणों में जल समझकर उनके पीछे दौड़ने वाला मृग जल न पाकर प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसार में सुख समझकर उसके पीछे दौड़ने वालों को भी बिना मुख का मगर यानी निराकार काल खा जाता है। इस संसार को कोई सत्य कहता है, कोई मिथ्या बतलाता है और कोई सत्य—मिथ्या से मिला हुआ मानता है; तुलसीदास के मत से तो जो इन तीनों भ्रमों से निवृत हो जाता है वही अपने असली स्वरूप को पहचान सकता है।
- पुस्तक : विनय-पत्रिका (पृष्ठ 142)
- रचनाकार : तुलसी
- प्रकाशन : गीताप्रेस
- संस्करण : 1998
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