कासौं झूझौं अवधू राई, विषय न दीसै कोई।
जासौं अब झूझौं रे आतम राम सोई॥
आपण ही मछ कछ आपण ही जाल।
आपण ही धीवर आपण ही काल॥
आपण ही स्यंघ बाध आपण ही गाइ।
आपण ही मारीला आपण ही खाइ॥
आपण ही टाटी फड़िका आपण ही बंध।
आपण ही मारीला आपण ही कंध॥
न्हाइबे कौं तीरथ न पूजिबै को देव।
भणंत गोरखनाथ अलख अभेव॥
हे अवधू! क़िससे युद्ध करूँ, सामने कोई विषय ही दिखाई नहीं देता। जिससे जूझता हूँ, वह आत्मा का स्वरूप है। (तत्त्वज्ञान होने पर मैं और पर का भेद नहीं रहता)। आत्मा ही मछली और कछुआ है। आत्मा ही जाल डालती है। धीवर में भी वही आत्मा है। धीवर की आत्मा ही काल बन जाती है। यह आत्मा स्वयं सिंह और बाघ है। यही गाय के रूप में है। यह अपने आपको मारती है और अपने आपको खाती है। यह आत्मा प्राणीरूप में हड्डियों का ढाँचा है (टाटी फड़िका) और अपने आप शरीर के संबंध में पड़ती है। यह स्वयं ही अपने शरीर (कंध) को मारती है। इस आत्मा से परे स्नान के लिए न कोई तीर्थ है और न ही पूजा के लिए देव है। गोरखनाथ कहता है− यह आत्मा अलक्ष्य है, अभेद्य है।
गोरख का कथन है कि सभी प्राणियों में एक ही चैतन्य है। अनेक शरीरों में इसके अनेक रूप हैं जो परस्पर मरते हैं और मारते हैं। तत्त्व-ज्ञान होने पर अनुभव होता है कि मरने और मारने वाला चैतन्य एक ही है, परंतु वह मरता भी नहीं, उसका बाह्य रूप मरता है।
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