जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै
jog thagauri braj na bikaihai
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधो! ऐसोइ फिरि जैहै।
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहे।
दाख छाँड़ि कै कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै?
मूरी के पातन के केना को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहि छाँड़ि कै को निर्गुन निबैहै?
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, आपका यह ठगपने का सौदा योग यहाँ नहीं बिकेगा। तुम्हारा यह सौदा ज्यों का त्यों वापस चला जाएगा (यहाँ इसकी खपत न हो सकेगी) हे भ्रमर, तुम जिसके पास इसे ले आए हो। वह उसके हृदय में नहीं समा सकेगा। भला कोई अंगूर को छोड़कर अपने मुख में नीम का कड़वा फल ग्रहण करेगा? ऐसा कौन मूर्ख है जो मूली के पत्तों के बदले में (निस्सार निर्गुण व ज्ञान के एवज़ में) मुक्ता (श्रीकृष्ण की भक्ति) को भेंट करेगा? सूरदास कहते हैं कि भगवान के सगुण रूप को छोड़ कर कौन निर्गुण (गुणहीन) ब्रह्म का निर्वाह (उपासना) करेगा!
- पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 73)
- रचनाकार : आाचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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