जयति-जयति श्रीहरिदास वर्य धरने
jayti jayti shriharidas wary dharne
जयति-जयति श्रीहरिदास वर्य धरने।
वारि वृष्टि निवारि घोष आरति टार देवपति अभिमान भंग करने।
जयति पटपीत दामिनी रुचिर वर मृदुल अंग सांवल सजल जलय वरने।
कर अधर बेनु धरि गान कलरव सहज ब्रज युवति जन चित्त हरने।
जयति वृंदा विपिन भूमि डोलनि अखिल लोक वंदनि अंबरुह चरने।
तरनि तनया विहार नंद गोप कुमार दास कुंभन नतयत बसि सरने॥
- पुस्तक : अष्टछाप के कवि (पृष्ठ 49)
- संपादक : हरगुलाल
- रचनाकार : कुम्भनदास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग, भारत सरकार
- संस्करण : 2008
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