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जय जय रसिक रवनी-रवन

jay jay rasik rawani rawan

भगवत रसिक

भगवत रसिक

जय जय रसिक रवनी-रवन

भगवत रसिक

और अधिकभगवत रसिक

    जय जय रसिक रवनी-रवन।

    रूप-गुन-लावन्य-प्रभुता, प्रेमपूरन भवन॥

    बिपति जन की मानिब कों, तुम बिना कहु कवन?

    हरहु मन की मलिनता, व्यापै माया-पवन।

    विषयरस इंद्री अजीरन, अति करावहु ववन।

    खोलिए हिय के नयन, दरसै सुखद बन अवन॥

    चतुर चिंतामनि दयानिधि, दुसह दारिद-दवन।

    मेटिये ‘भगवत' व्यथा, हँसि भेटिए तज मवन॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 234)
    • रचनाकार : भगवतरसिक
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
    • संस्करण : 2002

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