जहाँ-जहाँ पद-जुग धरई
jahan jahan pad jug dhari
जहाँ-जहाँ पद-जुग धरई। तहिं-तहिं सरोरुह झरई॥
जहाँ-जहाँ झलकए अंग। तहिं-तहिं बिजुरि-तरंग॥
कि हेरलि अपरुब गोरि। पइठलि हिअ मधि मोरि॥
जहाँ-जहाँ नयन विकास। ततहिं कमल परकास॥
जहाँ लहु हास संचार। तहिं-तहिं अमिअ-बिथार॥
जहाँ-जहाँ कुटिल कटाख। ततहिं-मदन-सर लाख॥
हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर॥
पुनु किए दरसन पाब। अब मोर ई दु;ख जाब॥
विद्यापति कह जानि। तुअ गुन देहब आनि॥
जहाँ-जहाँ (तरुणी) अपने पैर रखती है वहाँ-वहाँ कमल उग आते हैं। जहाँ-जहाँ उसका अंग झलकता है, वहाँ-वहाँ बिजली की हिलकोर उठती है। मैंने उस अनूठी गोरी को क्या देखा, वह तो मेरे दिल में हमेशा के लिए खुब गई।
वह जिधर नज़र डालती है, उधर कमल खिल उठते हैं। जहाँ मुस्कराती है वहाँ अमृत का छिड़काव होता है। भौंहें तिरछी होती हैं तो लगता है, कामदेव के लाख तीर साथ-साथ छूटे हैं। मै उस सुंदरी की ओर देखता हूँ तो मेरे लिए तीनों भुवन उजागर हो उठते हैं। क्या मुझे उसके फिर से दर्शन होंगे! क्या मेरा दु:ख फिर दूर होगा? विद्यापति का कहना है—“तुम्हारे गुण ही सुंदरी को तुम तक वापस ले आएँगे।”
- पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 29)
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2011
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