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हिलगनि कठिन है या मन की

hilagani kathin hai ya man ki

कुंभनदास

कुंभनदास

हिलगनि कठिन है या मन की

कुंभनदास

और अधिककुंभनदास

    हिलगनि कठिन है या मन की।

    जाके लियें देखि मेरी सजनी, लाज गई सब तनकी॥

    धरम जाव अरु लोग हँसो सब, गावौ-मिलि कुलगारी।

    सो क्यों रहै ताहि बिन देखे, जो जाकौ हितकारी॥

    निमिष छाँड़त रस-लुब्धक ज्यौं, वह अधीन मृग-गानो।

    ‘कुंभनदास' सनेह परम श्रीगोवर्द्धनधर जानो॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : ब्रजमाधुरी सार (पृष्ठ 145)
    • संपादक : वियोगी हरि
    • रचनाकार : कुंभनदास
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
    • संस्करण : 2002

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