मेरा तेरा मनुओं कैसे इक होई रे
mera tera manuon kaise ek hoi re
मेरा तेरा मनुओं कैसे इक होई रे।
मैं कहता हौं आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ उरझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोही रे।
जुगन जुगन समुझावत हारा, कही मानत कोई रे।
तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारे खोई रे।
सतगुरु धारा निर्मल बाहै, वामैं काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे॥
मेरा और तेरा दिल एक कैसे हो सकता है। मैं आँखों देखी कहता हूँ और तू किताबों में लिखी बात सुनाता है। मैं सुलझाने वाली बात कहता हूँ और तू उलझाने वाली। मैं कहता हूँ कि जागते रहना और तू सोता रहता है। मैं कहता हूँ कि संसार से दिल न लगाना और तू उसके मोह में फँसा हुआ है। समझाते-समझाते युग बीत गए परंतु मेरी कही बात कोई मानता नहीं। तू तो रंडी की तरह आवारा है और सारी धन-संपत्ति (अंतःकरण का सतीत्व) खो बैठा है। कबीर कहते हैं कि सद्गुरु निर्मल और पवित्र जल की धारा है। जो कोई इस पानी से अपनी काया को धो लेगा वही सद्गुरु जैसा हो सकता है।
- पुस्तक : कबीर बानी (पृष्ठ 100)
- रचनाकार : अली सरदार जाफ़री
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
- संस्करण : 2010
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