मेरे गति तुम हीं अनेक तोष पाऊँ।
चरन-कमल-नख-मनिपर बिषै-सुख बहाऊँ।
घर-घर जो डोलौं तौ हरि तुम्हैं लजाऊँ॥
तुम्हरौ कहाई कहौ कौन कौ कहाऊँ।
तुमसे प्रभु छाँड़ि कहा दीनन कौं धाऊँ॥
सीस तुम्हैं नाय कहौ कौन कौ नवाऊँ।
कंचन उर हार छाँड़ि काच क्यों बनाऊँ॥
सोभा सब हानि करूँ जगत कौं हँसाऊँ।
हाथी तें उतरि कहा गदहा चढ़ि धाऊँ॥
कुमकुम कौ लेप छाँड़ि काजर मुँह लाऊँ।
कामधेनु घर में तज अज क्यौं दुहाऊ॥
कनक महल छाँड़ि क्यों अब परनकुटी छाऊँ।
पाइन जो पेलौ प्रभु तौ न अनत जाऊँ॥
सूरदास मदनमोहन जनम-जनम गाऊँ।
संतन की पनही कौ रच्छक कहाऊँ॥
- पुस्तक : भजन-संग्रह दूसरा भाग (पृष्ठ 75)
- संपादक : वियोगी हरि
- रचनाकार : सूरदास मदनमोहन
- प्रकाशन : गीताप्रेस गोरखपुर
- संस्करण : 1940
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