देखौ माई! कान्ह हिलकियनि रोवै
dekhau mai
देखौ माई! कान्ह हिलकियनि रोवै!
इतनक मुख माखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवनि धोवै॥
माखन लागि उलूखल बाँध्यौ, सकल लोग ब्रज जोवै।
निरखि कुरुख उन बालनि की दिस, लाजनि अँखियनि गोवै॥
ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी, सुकर सुरभि नित नोवै।
बरबस हीं बैठारि गोद में, धारैं बदन निचोवै॥
ग्वालि कहैं या गोरस कारन, कत सुत की पति खोवै?
आनि देहिं अपने घर तैं हम, चाहति जितौ जसोवै॥
जब-जब बंधन छोरायौ चाहतिं, सूर कहै यह को वै।
मन माधौ तन, चित गोरस में, इहिं बिधि महरि बिलोवै॥
(गोपियाँ परस्पर कहती हैं—) ‘देखो तो सही, कन्हाई हिचकी ले-लेकर रो रहा है। छोटे-से मुख में मक्खन लिपटा है, जिसे भयके कारण आँसुओं से धो रहा है।’ मक्खन के कारण ऊखलसे बाँधा गया मोहन व्रज के सब लोगोंकी ओर देख रहा है। फिर उन गोपियों की ओर कठोर दृष्टिसे देखकर वह लज्जा से आँखें छिपा रहा है। गोप-बालक कहते हैं— ‘हमारी माताएँ धन्य है, जो प्रतिदिन अपने हाथों ही गयोंको नोती (उनके पिछले पैरों में रस्सी बाँधती) हैं, फिर आग्रहपूर्वक पकड़कर हमें गोद में बैठाकर हमारे मुख में (दूधकी) धार निचोड़ती (दुहती) हैं।’ गोपियाँ कहती हैं— ‘इस गोरस के लिये तुम पुत्र का सम्मान क्यों नष्ट करती हो? यशोदाजी! तुम जितना चाहती हो (बताओ) हम अपने घरों से लाकर दे दें।’ सूरदासजी कहते हैं कि जब-जब (कोई गोपी) बन्धन खोलना चाहती हैं, तभी व्रजरानी कहती हैं— ‘यह कौन है?’ व्रजेश्वरी इस प्रकार दधि-मन्थन कर रही हैं कि उनका मन तो श्यामसुन्दरकी ओर है और ध्यान गोरस में लगा है।
- पुस्तक : श्रीकृष्णबाल-माधुरी (पृष्ठ 186)
- संपादक : राग गौड़ मलार
- रचनाकार : सूरदास
- प्रकाशन : गीता प्रेस गोरखपुर
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