अनगढ़िया देवा
anagaDhiya dewa
अनगढ़िया देवा, कौन करै तेरी सेवा।
गढ़े देव को सब कोइ पूजै, नित ही लावै सेवा।
पूरन ब्रह्म अखंडित स्वामी, ताको न जानै भेवा।
दस औतार निरंजन कहिए, सो अपना ना होई।
यह तो अपनी करनी भोगैं, कर्ता और हि कोई।
जोगी जती तपी संन्यासी, आप आप में लड़ियाँ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, राग लखै सो तरियाँ॥
अनगढ़ देवता, तुझे मूर्ति का रूप नहीं दिया जा सकता, तेरी सेवा कौन करेगा। हर एक अपने हाथों से बनाए हुए देवता को पूजता है और उसकी सेवा करता है, लेकिन वह जो पूर्ण है, जो ब्रह्म है, जो अखंडित है उसका नाम कोई नहीं लेता। ये लोग दस अवतारों को मानते हैं जो मन से गढ़े गए हैं, लेकिन कोई अवतार निरंजन नहीं है। ये तो अपनी-अपनी करनी भोग रहे हैं, करने वाला तो और ही कोई है। जोगी, तपस्वी और संन्यासी सब आपस में लड़ रहे हैं। कबीर कहते हैं, सुनो भाई साधु, जिसने प्रेम (राग) को देखा है वह तर गया है।
- पुस्तक : कबीर बानी (पृष्ठ 37)
- रचनाकार : अली सरदार जाफ़री
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
- संस्करण : 2010
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