भंवरगीत (कथोपकथन)
bhanwargit (kathopakthan)
अर्घासन बैठाय बहुरि परिकरिमा दीनी।
स्याम-सखा निज जानि बहुरि हित सेवा कीनी॥
बूझत सुधि नंदलाल की बिहंसत मुख ब्रज-पाल।
ब्रज-नीके हैं बलबीर जू, बोलत बचन रसाल॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव—वे तुमते नहिं दूरि ग्यान की आंखन देखो।
अखिल बिस्व भरि पूरि रूप सब उनहिं बिसेखौ॥
लोह दारु पाषान में जल-थल मही अकास।
सचर अचर बरतत सबै जोति बह्म-परकास॥
सुनो ब्रजनागरी!॥
ब्रज—कौन ब्रह्म को जोति ग्यान कासों कहे ऊधौ?
हमरे सुंदर स्याम प्रेम को मारग सूधौ॥
नैन, बैन सुति, नासिका मोहन रूप दिखाइ।
सुधि बुधि सब मुरली हरी प्रेम-ठगोरी लाइ॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव—सर्गुन सबै उपाधि रूप निर्गुन ले उनकौ।
निराकार निर्लेप लगत नहिं तीनों गुन कौ॥
हाथ पांय नहिं नासिका नैन बैन नहि कान।
अच्युत ज्योति प्रकासिका, सकल बिस्व कै प्रान॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—जो मुख नाहिंन हुतो कहौ किन माखन खायौ?
पायन बिन गो संग कहो को बन बन धायौ?
आंखिन में अंजन दियौ, गोबरधन लियौ हाथ।
नंद-जसोदा पूत है कुंवर कान्ह ब्रजनाथ
सखा सुनि स्याम के॥
उद्धव—जाहि कहौ तुम कान्ह ताहि कोउ पितु नहि माता।
अखिल अंड ब्रह्मंड बिस्व उनहीं में जाता॥
लीला को अवतार लै धरि आए तन स्याम।
जोग जुगुत ही पाइयै पारब्रह्म-पद धाम॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—ताहि बताओ जोग जोग ऊधो जेहि पावौ।
प्रेम सहित हम पास नंदनंदन गुन गावौ॥
नैन बैन मन प्रान में मोहन गुन भरपूरि।
प्रेम पियूषै छांड़िकै कौन समेटे धूरि॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव-कर्महि ते उतपत्ति है कर्महि तें सब नास।
कर्म किए तें मुक्ति होइ पारब्रह्म पुर बास॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—कर्म, पाप अरु पुन्य, लोह सोने की बेरी।
पायन बंधन दोउ कोउ मानौ बहुतेरी॥
ऊंच कर्म ते स्वर्ग है, नीच कर्म तें भोग।
प्रेम बिना सब पचि मुये विषयवासना रोग॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव-कर्म बुरो जो होई जोग कोउ काहे धारैं।
पद्मासन सब द्वार रोकि इंद्रिन को मारैं॥
ब्रह्मअगिन जरि सुद्ध है सिद्धि समाधि लगाइ।
लीन होई साजुज्य में जोतै जोति समाइ॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—जोगी जोतिहिं भजे भक्त निज रूपहि जानै।
प्रेम पियूषै प्रगटि स्यामसुंदर उर आनै॥
निर्गुन गुन जो पाइयै लोग कहैं यह नाहिं।
घर आए नाग न पुजैं बांबी पूजन जाहिं॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव—जो हरि के गुन होइ वेद क्यों नेति बखानै।
निर्गुन सर्गुन आतमा उपनिषद जो गानै॥
बेद पुराननि खोजिकै नहिं पायो गुन एक।
गुनही के जो होहि गुन कहि अकास कहि टेक?॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—जो उनके गुन नाहिं और गुन भये कहां तें।
बीज बिना तरु जमें मोहिं तुम कहो कहां तें॥
वा गुन की परछांह री माया दरपन बीच।
गुन ते गुन न्यारे नहीं अमल बारि मिलि कीच॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव-माया के गुन और और गुन हरि के जानौ।
वा गुन को इन आनि काहे को सानौ॥
जाके गुन अरु रूप कौ जान न पायो भेद।
तातें निर्गुन ब्रह्म कौ बदत उपनिषद बेद॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—बेदहु हरि के रूप स्वास मुख तें जो निसरै।
कर्म क्रिया आसक्ति सबै पछिली सुधि बिसरै॥
कर्म मध्य ढूंढ़ै सबै किनहिं न पायौ देखि।
कर्मरहित ही पाइये तातें प्रेम बिसेखि॥
सखा! सुनि स्याम के॥
उद्धव—जे गुन आवै दृष्टि नस्वर हैं सारे।
इन सबहिन में बासुदेव अच्युत हैं न्यारे॥
इंद्री दृष्टि बिकार ते रहित अधोछज-जोति।
सुद्ध सरूपी ग्यान की प्रापति तिनको होति॥
सुनौ ब्रजनागरी!॥
ब्रज—नास्तिक हैं जे लोग कहा जानैं निज रूपै।
प्रगट भानु को छांडि गहत परछाईं धूपै॥
हमरें तौ यह रूप बिन और न कछू सुहाय।
जो करतल आमलक के कोटिक ब्रह्म दिखाय॥
सखा! सुनि स्याम के॥
- पुस्तक : अष्टछाप कवि : नंददास (पृष्ठ 68)
- संपादक : सरला चौधरी
- रचनाकार : नंददास
- प्रकाशन : प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
- संस्करण : 2006
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