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भरत-राम का प्रेम (एन.सी. ई.आर.टी)

bharat raam ka prem (en. si. ii. aar. tee)

तुलसीदास

तुलसीदास

भरत-राम का प्रेम (एन.सी. ई.आर.टी)

तुलसीदास

और अधिकतुलसीदास

    नोट

    प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।

    पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
    कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा॥
    मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ॥
    मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी॥
    सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू॥
    मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेंहूँ खेल जितावहिं मोंही॥

    महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
    दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन॥

     

    बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा॥
    यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा॥
    मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली॥
    फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव कि संबुक काली॥
    सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू॥
    बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू॥
    हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा॥
    गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू॥

    साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
    प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ॥


    भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी॥
    देखि न जाहिं बिकल महतारीं। जरहिं दुसह जर पुर नर नारीं॥
    महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला॥
    सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा॥
    बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ॥
    बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू॥
    अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई॥
    जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तापस तीछी॥

    तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
    तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि॥

    ‘रामचरितमानस’ के अयोध्या कांड से



    पद

    (1)

    जननी निरखति बान धनुहियाँ।
    बार बार उर नैननि लावति प्रभुजू की ललित पनहियाँ॥
    कबहुँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
    उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज सखा सब द्वारे॥
    कबहुँ कहति यों बड़ी बार भइ जाहु भूप पहँ, भैया।
    बंधु बोलि जेंइय जो भावै गई निछावरि मैया
    कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
    तुलसीदास वह समय कहे ते लागति प्रीति सिखी सी॥
    कबहुँ समुझि वनगमन राम को रहि चकि चित्रलिखी सी।
    तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी सी॥


    (2)

    राघौ! एक बार फिरि आवौ।
    ए बर बाजि बिलोकि आपने बहुरो बनहिं सिधावौ॥
    जे पय प्याइ पोखि कर-पंकज वार वार चुचुकारे।
    क्यों जीवहिं, मेरे राम लाडिले! ते अब निपट बिसारे॥
    भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि तिहारे।
    तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे॥
    सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु संदेसो।
    तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो॥

    —‘गीतावली’ से                                            

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    तुलसीदास

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    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतरा (भाग-2) (पृष्ठ 35)
    • रचनाकार : तुलसीदास
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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