अंकुर तपन ताप जदि जारब
ankur tapan tap jadi jarab
अंकुर तपन ताप जदि जारब कि करब बारिद मेघे।
ई नव जोबन बिरह गमाओब कि करब से पिया गेहे॥
हरि हरि के यह दैब दुरासा।
सिंधु निकट जदि कंठ सुखाएब के दुर करब पियासा॥
चंदन तन जब सौरभ छोड़ब ससधर बरखब आगी।
चिंतामनि जब निज गुन छोड़ब कि मोर करम अभागी॥
साओन माह धन-बिंदु न बरिखब सुरतरु बाँझ कि छाँदे।
गिरिधर सेबि ठाम नहिं पाएब विद्यापति रहु धाँदे॥
यदि ताप की ज्वाला नवांकुरों को झुलसा दे तो फिर जलदायक मेघ क्या कर सकता है? इसी प्रकार यदि यह मेरा नवयौवन विरह में नष्ट हो गया तो फिर प्रियतम घर आकर क्या करेंगे? हे हरि! क्या यह मेरे भाग्य की निराशा नहीं। सागर के तट पर ही यदि कंठ सूख जाए तो फिर पिपासा को किस प्रकार दूर किया जा सकता है। यदि चंदन का वृक्ष अपनी सुगंधि का परित्याग कर दे, और चंद्रमा अग्नि का वर्षण करने लगे और चिंतामणि अपने गुण (मनोवांछित फल देने) का त्याग कर दे तो क्या यह मेरा ही दुर्भाग्य नहीं है। विद्यापति कहते हैं कि सावन के मास में मेघ चाहें एक बूँद का भी वर्षण न करें किंतु क्या कल्पवृक्ष फलहीन हो सकता है। विद्यापति कहते हैं कि मुझे इस बात में संदेह नहीं है कि गिरि को धारण करने वाले कृष्ण की सेवा करने से समस्त कामनाओं की पूर्ति अवश्य होगी।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 314)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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