ऐसा जाप जपौ मन लाई, सोहं सोहं अजपा गाई॥
आसण दिढ करि धरौ धियानं, अहनिसि सुमरौ ब्रह्मगियानं।
जाग्रत न्यंद्रा सुलप अहारं, काम क्रोध अहंकार निवारं॥
नासा अग्र निज, ज्यौ बाई, इडा प्यंगुला मधि समाई।
छसैं सहस इकीसौ जाप, अनहद उपजै आपहि आप॥
बंकनालि में ऊगै सूर, रोम रोम धुनि बाजै तूर।
उलटै कमल सहस्त्रदल बास, भ्रमर गुफा महिं जोति प्रकास॥
सुणि मथुरा सिव गारेख कहै, परम तत ते साधु लहै॥
हे अवधू! मन लगाकर ब्रह्म का सोहं सोहं जाप जपो। दृढ आसन लगाकर ध्यान धरो और दिन−रात ब्रह्म−ज्ञान का स्मरण करो। नींद से जागो, स्वल्प आहार लो और काम, क्रोध व अहंकार को दूर करो। नाक के अग्रभाग में जो वायु है, वह इड़ा और पिंगला में समा जाए अर्थात् श्वास−प्रश्वास भी रुक जाए। मनुष्य दिन-भर में इक्कीस हज़ार छह सौ साँस लेता है, इनमें अपने आप अनहद शब्द पैदा हो जाए। बंकनाल (एक नाड़ी जो ललाट के पश्चिमी भाग से चलकर तालु मूल में खुलती है) में प्रकाश उग आए और शरीर के रोम−रोम में अनहद ध्वनि हो। सहस्रकमल उल्टे कमल के रूप में है। तब इससे सुगंधि आने लगती है। इस कमल तक पहुँचने के लिए भ्रमर गुफ़ा है जिसमें ब्रह्म की ज्योति का प्रकाश हो जाता है। गोरख कहता है—हे मथुरा सुन! इस परम तत्त्व को साधु ही प्राप्त कर पाता है।
- रचनाकार : गोरखनाथ
- प्रकाशन : laxmi prakashan
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