अबलौं नसानी, अब न नसैहौं
ablau.n nasaanii, ab n nasaihau.n
अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहों।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं॥
अब तक तो यह आयु व्यर्थ ही नष्ट हो गई, परंतु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। श्रीराम की कृपा से संसार रूपी रात्रि बीत गई है, अब जागने पर फिर माया का बिछौना नहीं बिछाऊँगा। मुझे राम नाम रूपी सुंदर चिंतामणि मिल गई है। उसे हृदयरूपी हाथ से कभी नहीं गिरने दूँगा। श्रीरघुनाथ जी का जो पवित्र श्यामसुंदर रूप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी सोने को कसूँगा। जब तक मैं इंद्रियों के वश में था, तब तक उन्होंने मुझे मनमाना नाच नचाकर मेरी बड़ी हँसी उड़ाई, परंतु अब स्वतंत्र होने पर यानी मन-इंद्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा। अब तो अपने मनरूपी भ्रमर को प्रण करके श्रीराम जी के चरण-कमलों में लगा दूँगा।
- पुस्तक : विनय-पत्रिका (पृष्ठ 137)
- संपादक : हनुमान प्रसाद पोद्दार
- रचनाकार : तुलसी
- प्रकाशन : गीताप्रेस
- संस्करण : 1998
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