अब हौं माया-हाथ बिकानौ
ab haun maya hath bikanau
अब हौं माया-हाथ बिकानौ।
परबस भयौ पसू ज्यौं रजु-बस, भज्यौ न श्रीपति रानौ॥
हिंसा-मद-ममता-रस भूल्यौ, आसाहीं लपटानौ।
याही करत अधीन भयौ हौं, निद्रा अति न अघानौ॥
अपने हीं अज्ञान-तिमिर मैं, बिसर्यौ परम ठिकानौ।
सूरदास की एक आँखि है, ताहू मैं कछु कानौ॥
अब मैं माया के हाथ बिक गया हूँ, रस्सी में बँधे पशु के समान परवश हो गया हूँ। त्रिभुवन के स्वामी श्रीपति का मैंने भजन नहीं किया। हिंसा, गर्व, ममता आदि की आसक्ति में भूला हुआ और आशा से लिपटा हुआ (नित्य नवीन व्यर्थ आशाएँ करने वाला हो गया) हूँ। यही सब (हिंसा, गर्व, ममता और आशा) करते हुए मैं माया के अधीन हो गया। अत्यधिक निद्रा लेकर (अज्ञान में पड़े रहकर) भी तृप्ति नहीं हुई, भोगों से पेट नहीं भरा। अपने ही अज्ञान के अंधकार में सर्वश्रेष्ठ निवास भगवद्धाम भूल गया। सूरदास कहते हैं—मेरी एक ही तो आँख है और वह भी कुछ कानी है अर्थात् बाहरी नेत्र तो मेरे हैं ही नहीं, केवल भीतरी नेत्र है; पर वह भी पूरा नहीं है; उस ज्ञान नेत्र में भी दोष है। माया ने उसे भी विकृत कर रखा है।
- पुस्तक : सूर−विनय−पत्रिका (पृष्ठ 56)
- रचनाकार : सुदर्शनसिंह
- प्रकाशन : गीता प्रेस
- संस्करण : 2000
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