आंबलियौ थल मौरियौ, ऊपर नींब बिजौरं फलियौ।
सो फल खातां लागै मीठौ, जाणै रे जिन गुर प्रसादैं दीठौ॥
ऊँट सिचाणै जब ग्रह्यौ, जाइ कैरूँ डाली बैठौ।
बांझैं बेटा जन्म्यूँ, नैणैं पुरिष न दीठौ॥
लाकड़ डूबै सिल तिरै, देखतां जग जाइ।
ऊँट प्रनालै बहि गयौ, सुसि ल्यौ पौली नै माइ॥
डूँगरि मंछा जल सुसा, पाणीं मैं दौं लागा।
अरहट बहै तुसालवाँ, सूलै काँटा भागा॥
एक गाइ नौ बछड़ा, पंच दुहेबा जाइ।
एक फूल सोलह करंडियाँ, मालनि हरषि न माइ॥
पगां बिहूनड़ै चोरी कीधी, चोरी नैं आणीं गाइ।
मछिंद्र प्रसादैं गोरख बोल्या, दूझै पाणी न ब्याइ॥
जब आत्मा (आंबलियौ) ने ब्रह्म स्थान (थल) का मार्ग (मौरियौ) पा लिया तो शरीर (नींब) पर ज्ञान (बिजौरा) का फल लगा। वह फल खाने में मधुर प्रतीत हुआ। उस ज्ञान को वही समझ पाता है जो गुरु के उपदेश से उसे देखने/जानने का प्रयास करता है। आत्मा (ऊँट) जब योग कर्म (कैरूँ) रूपी वृक्ष पर आरूढ़ हुआ तो उसने ज्ञान (शब्द) ग्रहण किया। बाँझ ने बेटे को जन्म दिया अर्थात् आत्मा ने ज्ञान/ब्रह्म पाया, व्यक्ति (पुरिष) स्थूल नयनों से उसे न देख सका। संसार देखता है कि लक्कड़ डूब जाता है और शिला तैरती है अर्थात् भारी वस्तु डूब जाती है और नरम (सिल) वस्तु तैरती रहती है। ऊँट नाले में बह गया और शशक/ख़रगोश ने ड्यौढ़ी में ध्यान लगा लिया अर्थात् जब आत्मा ने ध्यान-मार्ग में डुबकी लगाई तो जीव (सुसा) ने भ्रमर गुहा (पौली) में ध्यान लगा लिया। फिर कुंडलिनी (मंछा) ललाट (डूंगरि/पहाड़ी) पर चढ़ गई तो जीव (सुसा) ब्रह्म (जल) में जा पहुँचा। फिर तृषा शांत करने वाला चंद्रामृत तालु में रहट की तरह बहने लगा। इस प्रकार शूल से काँटा निकाल लिया अर्थात् माया को माया द्वारा ही दूर कर दिया। एक शरीर (गाइ) है, इसमें नौ द्वार बछड़े हैं और पाँच ज्ञानेंद्रियाँ इसे दुहती हैं। एक फूल (कंट चक्र) है जिसमें सोलह कमल दल हैं। इस कंठ चक्र का शिव स्थान पाकर जीवन (मालनि) फूला न समाया। जीव पैरों (कर्मों) के बिना चुपके से ऊपर चढ़ गया। उसने आकाश मंडल में गाय चुरा ली अर्थात् मस्तिष्क स्थान में ब्रह्नुभूति पा ली। मच्छंदर की कृपा से गोरख कहता है कि इस विधि के पश्चात् दूसरी बार भवसागर (पाणीं) में जन्म नहीं होगा।
- पुस्तक : श्री गोरख गीत (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : गोरखनाथ
- प्रकाशन : laxmi prakashan
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