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अब की यह बरस

ab ki ye baras

रमेश रंजक

रमेश रंजक

अब की यह बरस

रमेश रंजक

और अधिकरमेश रंजक

    अब की यह बरस

    बड़ा तरस-तरस बीता

    दीवारें नहीं पुतीं, रंग नहीं आए

    एक-एक माह बाँध, खींच-खींच लाए

    अब की यह बरस

    जाने क्या हो गया सवेरों को

    रोगी की तरह उठे खाट से

    रूखे-सूखे दिन पर दिन गए

    किसी नदी के सूने घाट-से

    हमजोली शाखों के हाथ-पाँव

    पानी में तैर नहीं पाए

    शामें सब सरकारी हो गईं

    अपनापन पेट में दबोचकर

    छाती पर से शहर गुज़र गया

    जाने कितना निरीह सोचकर

    बिस्तर तक माथे की मेज़ पर

    काग़ज़ दो-चार फड़फड़ाए

    वेतन की पूर्णिमा नहीं लगी

    दशमी के चाँद से अधिक हमें

    शीशों को तोड़ गई कालिमा

    समझे फिर कौन आस्तिक हमें

    खिड़की से एक धार ओजकर

    हम आधी देह भर नहाए

    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश रंजक
    • प्रकाशन : कविता कोश

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