विशेष लेखन—स्वरूप और प्रकार
vishesh lekhan—svarup aur prakar
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
दस लाख संगीनें मेरे भीतर वह ख़ौफ़ पैदा नहीं करतीं, जो तीन छोटे अख़बार।
—नेपोलियन
फ़्रांसीसी सेनानायक
एक नज़र में...
पिछले अध्यायों में हमने जनसंचार के तमाम माध्यमों के अलावा लेखन के विभिन्न प्रकारों पर बात की। समाचार और फ़ीचर लेखन के फ़र्क़ को समझा। लेकिन मीडिया लेखन के कई और पहलू भी हैं। आपने ध्यान दिया होगा कि ज़्यादातर अख़बारों में खेल, अर्थ-व्यापार, सिनेमा या मनोरंजन के अलग पृष्ठ होते हैं। इनमें छपने वाली ख़बरें, फ़ीचर या आलेख कुछ अलग तरह से लिखे जाते हैं। इनकी न सिर्फ़ शैली अलग होती है बल्कि भाषा भी अलग होती है। एक समाचारपत्र या पत्रिका तभी संपूर्ण लगती है जब उसमें विभिन्न विषयों और क्षेत्रों के बारे में घटने वाली घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों के बारे में नियमित रूप से जानकारी दी जाए।
इससे समाचारपत्रों में एक विविधता आती है और उनका कलेवर व्यापक होता है। दरअसल, पाठकों की रुचियाँ बहुत व्यापक होती हैं और वे साहित्य से लेकर विज्ञान तक तथा कारोबार से लेकर खेल तक सभी विषयों पर पढ़ना चाहते हैं। इसके अलावा बहुतेरे पाठक ऐसे भी होते हैं जिनकी विज्ञान या खेल या कारोबार या सिनेमा में गहरी दिलचस्पी होती है। वे अपनी दिलचस्पी के इन विषयों के बारे में विस्तार से पढ़ना चाहते हैं। इसलिए समाचारपत्रों और दूसरे जनसंचार माध्यमों को सामान्य समाचारों से अलग हटकर विशेष क्षेत्रों या विषयों के बारे में भी निरंतर और पर्याप्त जानकारी देनी पड़ती है।
क्या है विशेष लेखन
समाचारपत्रों में विशेष लेखन के लिए जगह यहीं से बनती है। विशेष लेखन यानी किसी ख़ास विषय पर सामान्य लेखन से हटकर किया गया लेखन। अधिकतर समाचारपत्रों और पत्रिकाओं के अलावा टी.वी. और रेडियो चैनलों में विशेष लेखन के लिए अलग डेस्क होता है और उस विशेष डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों का समूह भी अलग होता है। जैसे समाचारपत्रों और अन्य माध्यमों में बिज़नेस यानी कारोबार और व्यापार का अलग डेस्क होता है, इसी तरह खेल की ख़बरों और फ़ीचर के लिए खेल डेस्क अलग होता है। इन डेस्कों पर काम करने वाले उपसंपादकों और संवाददाताओं से अपेक्षा की जाती है कि संबंधित विषय या क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता होगी।
असल में, ख़बरें भी कई तरह की होती हैं—राजनीतिक, आर्थिक, अपराध, खेल, फ़िल्म, कृषि, कानून, विज्ञान या किसी भी और विषय से जुड़ी हुई। संवाददाताओं के बीच काम का विभाजन आमतौर पर उनकी दिलचस्पी और ज्ञान को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। मीडिया की भाषा में इसे बीट कहते हैं। एक संवाददाता की बीट अगर अपराध है तो इसका अर्थ यह है कि उसका कार्यक्षेत्र अपने शहर या क्षेत्र में घटनेवाली आपराधिक घटनाओं की रिपोर्टिंग करना है। अख़बार की ओर से वह इनकी रिपोर्टिंग के लिए ज़िम्मेदार और जवाबदेह भी है।
इसी तरह अगर आपकी दिलचस्पी और जानकारी का क्षेत्र खेल है तो आपको खेल बीट मिल सकती है और अगर आपकी आर्थिक या कारोबार जगत से जुड़ी ख़बरों में दिलचस्पी और जानकारी है तो आपके हिस्से आर्थिक रिपोर्टिंग की ज़िम्मेदारी आ सकती है। अगर आपको प्रकृति या पर्यावरण से प्यार है और इसके बारे में कुछ ज़्यादा जानकारी रखते हैं तो आपको पर्यावरण बीट मिल सकती है। लेकिन विशेष लेखन केवल बीट रिपोटिंग नहीं है। यह बीट रिपोर्टिंग से आगे एक तरह की विशेषीकृत रिपोर्टिंग है जिसमें न सिर्फ़ उस विषय की गहरी जानकारी होनी चाहिए बल्कि उसकी रिपोर्टिंग से संबंधित भाषा और शैली पर भी आपका पूरा अधिकार होना चाहिए।
सामान्य बीट रिपोर्टिग के लिए भी एक पत्रकार को काफ़ी तैयारी करनी पड़ती है। उदाहरण के तौर पर जो पत्रकार राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं या किसी ख़ास राजनीतिक पार्टी को कवर करते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि उस पार्टी का इतिहास क्या है, उसमें समय-समय पर क्या हुआ है, आज क्या चल रहा है, पार्टी के सिद्धांत या नीतियाँ क्या हैं, उसके पदाधिकारी कौन-कौन हैं और उनकी पृष्ठभूमि क्या है, बाक़ी पार्टियों से उस पार्टी के कैसे रिश्ते हैं और उनमें आपस में क्या फ़र्क़ है, उसके अधिवेशनों में क्या-क्या होता रहा है, उस पार्टी की कमियाँ और खूबियाँ क्या हैं, वग़ैरह-वग़ैरह। पत्रकार को उस पार्टी के भीतर गहराई तक अपने संपर्क बनाने चाहिए और ख़बर हासिल करने के नए-नए स्रोत विकसित करने चाहिए। किसी भी स्रोत या सूत्र पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं करना चाहिए और जानकारी की पुष्टि कई और स्रोतों के ज़रिए भी करनी चाहिए। यानी उस पत्रकार को ज़्यादा से ज़्यादा समय अपने क्षेत्र के बारे में हर छोटी बड़ी जानकारी इकट्ठी करने में बिताना पड़ता है तभी वह उस बारे में विशेषज्ञता हासिल कर सकता है और उसकी रिपोर्ट या ख़बर विश्वसनीय मानी जाती है।
यह तो हुई बीट रिपोर्टिंग। लेकिन बीट रिपोर्टिंग और विशेषीकृत रिपोर्टिंग में फ़र्क़ है। दोनों के बीच सबसे महत्त्वपूर्ण फ़र्क़ यह है कि अपनी बीट की रिपोर्टिंग के लिए संवाददाता में उस क्षेत्र के बारे में जानकारी और दिलचस्पी का होना पर्याप्त है। इसके अलावा एक बीट रिपोर्टर को आमतौर पर अपनी बीट से जुड़ी सामान्य ख़बरें ही लिखनी होती हैं। लेकिन विशेषीकृत रिपोर्टिंग का तात्पर्य यह है कि आप सामान्य ख़बरों से आगे बढ़कर उस विशेष क्षेत्र या विषय से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से विश्लेषण करें और पाठकों के लिए उसका अर्थ स्पष्ट करने की कोशिश करें। जैसे अगर शेयर बाज़ार में भारी गिरावट आती है तो उस बीट पर रिपोर्टिंग करनेवाला संवाददाता उसकी एक तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार करेगा, जिसमें सभी ज़रूरी सूचनाएँ और तथ्य शामिल होंगे। लेकिन विशेषीकृत रिपोर्टिंग करनेवाला संवाददाता इसका विश्लेषण करके यह स्पष्ट करने की कोशिश करेगा कि बाज़ार में गिरावट क्यों और किन कारणों से आई है और इसका आम निवेशकों पर क्या असर पड़ेगा।
यही कारण है कि बीट कवर करने वाले रिपोर्टर को संवाददाता और विशेषीकृत रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर को विशेष संवाददाता का दर्ज़ा दिया जाता है। लेकिन विशेष लेखन सिर्फ़ विशेषीकृत रिपोर्टिंग भी नहीं है। विशेष लेखन के तहत रिपोर्टिंग के अलावा उस विषय या क्षेत्र विशेष पर फ़ीचर, टिप्पणी, साक्षात्कार, लेख, समीक्षा और स्तंभ लेखन भी आता है। इस तरह का विशेष लेखन समाचारपत्र या पत्रिका में काम करने वाले पत्रकार से लेकर फ़्रीलांस पत्रकार या लेखक तक सभी कर सकते हैं। शर्त सिर्फ़ यह है कि विशेष लेखन के इच्छुक पत्रकार या स्वतंत्र लेखक को उस विषय में माहिर होना चाहिए। मतलब यह कि किसी भी क्षेत्र पर विशेष लेखन करने के लिए ज़रूरी है कि उस क्षेत्र के बारे में आपको ज़्यादा से ज़्यादा पता हो, उसकी ताज़ा से ताज़ा सूचना आपके पास हो, आप उसके बारे में लगातार पढ़ते हों, जानकारियाँ और तथ्य इकट्ठे करते हों और उस क्षेत्र से जुड़े लोगों से लगातार मिलते रहते हों।
इसी तरह अख़बारों और पत्र-पत्रिकाओं में किसी ख़ास विषय पर लेख या स्तंभ लिखने वाले कई बार पेशेवर पत्रकार न होकर उस विषय के जानकार या विशेषज्ञ होते हैं। जैसे रक्षा, विज्ञान, विदेशनीति, कृषि या ऐसे ही किसी क्षेत्र में कई वर्षों से काम कर रहा कोई प्रोफ़ेशनल इसके बारे में बेहतर तरीक़े से लिख सकता है क्योंकि उसके पास इस क्षेत्र का वर्षों का अनुभव होता है, वो इसकी बारीकियाँ समझता है और उसके पास विश्लेषण करने की क्षमता होती है। हो सकता है उसके लिखने की शैली सामान्य पत्रकारों की तरह न हो लेकिन जानकारी और अंतर्दृष्टि के मामले में उसका लेखन पाठकों के लिए फ़ायदेमंद होता है। उदाहरण के तौर पर हम खेलों में हर्ष भोगले, जसदेव सिंह या नरोत्तम पुरी का नाम ले सकते हैं। वे पिछले चालीस सालों से हॉकी से लेकर क्रिकेट तक और ओलंपिक से लेकर एशियाई खेलों तक की कमेंट्री करते रहे हैं।
ज़ाहिर है कि खेलों के बारे में उनकी जितनी जानकारी है, उतनी आमतौर पर किसी के पास नहीं होती है। उन्हें खेल विशेषज्ञ माना जाता है। वे खेलों की तकनीकी बारीकियाँ समझते हैं। क्रिकेट का कोई भी रिकार्ड उनकी ज़ुबान पर होता है। ऐसे में खेलों पर लिखे उनके लेखों को आम पाठक बहुत रुचि के साथ पढ़ते हैं। इसी तरह रक्षा, विदेशनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा, विज्ञान, स्वास्थ्य, शिक्षा और पर्यावरण जैसे विषयों पर लिखने वाले विशेषज्ञों और प्रोफ़ेशनल्स के स्तंभ या लेख/टिप्पणियाँ, समाचारपत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित होती हैं।
विशेष लेखन की भाषा और शैली
सामान्य लेखन का यह सर्वमान्य नियम विशेष लेखन पर भी लागू होता है कि वह सरल और समझ में आने वाला हो। दरअसल, विशेष लेखन का संबंध जिन विषयों और क्षेत्रों से है, उनमें से अधिकांश तकनीकी रूप से जटिल क्षेत्र हैं और उनसे जुड़ी घटनाओं और मुद्दों को समझना आम पाठकों के लिए कठिन होता है। इसलिए इन क्षेत्रों में विशेष लेखन की ज़रूरत पड़ती है जिससे पाठकों को समझने में मुश्किल न हो। विशेष लेखन की भाषा और शैली कई मामलों में सामान्य लेखन से अलग है। उनके बीच सबसे बुनियादी फ़र्क़ यह है कि हर क्षेत्र विशेष की अपनी विशेष तकनीकी शब्दावली होती है जो उस विषय पर लिखते हुए आपके लेखन में आती है। जैसे कारोबार पर विशेष लेखन करते हुए आपको उसमें इस्तेमाल होने वाली शब्दावली से परिचित होना चाहिए। दूसरे, अगर आप उस शब्दावली से परिचित हैं तो आपके सामने चुनौती यह होती है कि आप अपने पाठक को भी उस शब्दावली से इस तरह परिचित कराएँ कि उसे आपकी रिपोर्ट को समझने में कोई दिक़्क़त न हो।
मिसाल के तौर पर कारोबार और व्यापार से जुड़ी ख़बरों में आप अकसर तेजड़िए, मंदड़िए,. बिकवाली, ब्याज दर, मुद्रास्फीति, व्यापार घाटा, राजकोषीय घाटा, राजस्व घाटा, वार्षिक योजना, विदेशी संस्थागत निवेशक, एफ.डी.आई., आवक, निवेश, आयात, निर्यात जैसे शब्द पढ़ते होंगे। इसी तरह ‘सोने में भारी उछाल’, ‘चाँदी लुढ़की’ या ‘आवक बढ़ने से लाल मिर्च की कड़वाहट घटी’ या ‘शेयर बाज़ार ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़े, सेंसेक्स आसमान पर’ आदि शीर्षक भी आपकी निगाहों से गुज़रे होंगे। पर्यावरण और मौसम से जुड़ी ख़बरों के लिए उससे जुड़े ख़ास शब्द मसलन—पश्चिमी हवाएँ, आर्द्रता, टॉक्सिक कचरा, ग्लोबल वार्मिंग, तूफ़ान का केंद्र या रुख़ आदि शब्दों की ओर भी आपका ध्यान गया होगा। खेलों में भी ‘भारत ने पाकिस्तान को चार विकेट से पीटा’, ‘चैंपियंस कप में मलेशिया ने जर्मनी के आगे घुटने टेके’ आदि शीर्षक सहज ही ध्यान खींचते हैं।
विशेष लेखन की कोई निश्चित शैली नहीं होती। लेकिन अगर आप अपने बीट से जुड़ा कोई समाचार लिख रहे हैं तो उसकी शैली उलटा पिरामिड शैली ही होगी। लेकिन अगर आप समाचार फ़ीचर लिख रहे हैं तो उसकी शैली कथात्मक हो सकती है। इसी तरह अगर आप लेख या टिप्पणी लिख रहे हों तो इसकी शुरुआत भी फ़ीचर की तरह हो सकती है। जैसे आप किसी केस स्टडी से उसकी शुरुआत कर सकते हैं, उसे किसी ख़बर से जोड़कर यानी न्यूज़पेग के ज़रिए भी शुरू किया जा सकता है। इसमें पुराने संदर्भों को आज के संदर्भ में जोड़कर पेश करने की भी संभावना होती है।
चाहे आप शैली कोई भी अपनाएँ लेकिन मूल बात यह है कि किसी ख़ास विषय पर लिखा गया आपका आलेख सामान्य लेख से अलग होना चाहिए। एक बात और याद रखनी चाहिए कि विशेष लेखन को सभी पाठक नहीं पढ़ते और एक हद तक उनका पाठक वर्ग अलग भी होता है। जैसे समाचारपत्र में कारोबार और व्यापार का पन्ना कम पाठक पढ़ते हैं लेकिन जो पाठक पढ़ते हैं, उनकी अपेक्षा सामान्य पाठकों की तुलना में अधिक होती है। चूँकि वे उस विषय या क्षेत्र से जुड़े होते हैं, इसलिए उनकी अपेक्षा यह होती है कि उन्हें उन विषयों या क्षेत्रों के बारे में ज़्यादा विस्तार और गहराई से बताया जाए।
विशेष लेखन के क्षेत्र
विशेष लेखन के कई क्षेत्र हैं। आमतौर पर रोज़मर्रा की रिपोर्टिंग और बीट को छोड़कर वैसे सभी क्षेत्र, विशेष लेखन के दायरे में आते हैं जिनमें अलग से विशेषज्ञता की ज़रूरत होती है। लेकिन समाचारपत्रों और दूसरे माध्यमों में खेल, कारोबार, सिनेमा, मनोरंजन, फ़ैशन, स्वास्थ्य, विज्ञान, पर्यावरण, शिक्षा, जीवनशैली और रहन-सहन जैसे विषयों को आजकल विशेष लेखन के लिहाज़ से ज़्यादा महत्त्व मिल रहा है। इसके अलावा रक्षा, विदेश नीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और विधि जैसे क्षेत्रों में विशेषीकृत रिपोर्टिंग को प्राथमिकता दी जा रही है।
विशेष लेखन के लिए हम जब विशेषज्ञता की बात करते हैं तो उसका तात्पर्य यह नहीं है कि आप उसके उस अर्थ में विशेषज्ञ हैं जिस अर्थ में एक प्रोफ़ेशनल अर्थशास्त्री आर्थिक मामलों का विशेषज्ञ होता है या कोई वरिष्ठ सैनिक अधिकारी या सैन्य विज्ञान में डॉक्टरेट रक्षा मामलों का विशेषज्ञ होता है। हालाँकि हाल के वर्षों में मीडिया में ऐसे विशेषज्ञ पत्रकारों की तादाद बढ़ी है जो अर्थशास्त्र या पर्यावरण विज्ञान या एमबीबीएस जैसी प्रोफ़ेशनल और उच्च डिग्री लेकर पत्रकारिता में आए हैं। लेकिन पत्रकारिता में विशेषज्ञता का अर्थ थोड़ा अलग होता है। यहाँ विशेषज्ञता से हमारा तात्पर्य एक तरह की पत्रकारीय विशेषज्ञता से है। पत्रकारीय विशेषज्ञता का अर्थ यह है कि व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित न होने के बावजूद उस विषय में जानकारी और अनुभव के आधार पर अपनी समझ को इस हद तक विकसित करना कि उस विषय या क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं और मुद्दों की आप सहजता से व्याख्या कर सकें और पाठकों के लिए उनके मायने स्पष्ट कर सकें।
कैसे हासिल करें विशेषज्ञता
आजकल पत्रकारिता में ‘जैक ऑफ़ ऑल ट्रेड्स, बट मास्टर ऑफ़ नन’ (सभी विषयों के जानकार लेकिन किसी ख़ास विषय में विशेषज्ञता नहीं) की बजाए ‘मास्टर ऑफ़ वन’ (यानी किसी एक विषय में विशेषज्ञता ज़रूरी है) की माँग की जा रही है। सवाल यह उठता है कि आप किसी भी विषय में विशेषज्ञता कैसे हासिल कर सकते हैं? इस सिलसिले में सबसे ज़रूरी बात यह है कि आप जिस भी विषय में विशेषज्ञता हासिल करना चाहते हैं, उसमें आपकी वास्तविक रुचि होनी चाहिए। इसके साथ ही अगर आप उस विषय में विशेषज्ञता हासिल करना चाहते हैं तो बेहतर होगा कि आप उच्चतर माध्यमिक (+2) और स्नातक स्तर पर उसी या उससे जुड़े विषय में पढ़ाई करें।
इसके अलावा अपनी रुचि के विषय में पत्रकारीय विशेषज्ञता हासिल करने के लिए आपको उन विषयों से संबंधित पुस्तके ख़ूब पढ़नी चाहिए। विशेष लेखन के क्षेत्र में सक्रिय लोगों के लिए ख़ुद को अपडेट रखना बेहद ज़रूरी होता है। इसके लिए उस विषय से जुड़ी ख़बरों और रिपोटों की कटिंग करके फ़ाइल बनानी चाहिए। साथ ही उस विषय के प्रोफ़ेशनल विशेषज्ञों के लेख और विश्लेषणों को कटिंग भी सहेजकर रखनी चाहिए। एक तरह से आपको उस विषय में जितनी संभव हो, संदर्भ सामग्री जुटाकर रखनी चाहिए। इसके अलावा उस विषय का शब्दकोश और इनसाइक्लोपीडिया भी आपके पास होनी चाहिए।
यही नहीं, जिस विषय में आप विशेषज्ञता हासिल करना चाहते हैं, उससे जुड़े सरकारी और ग़ैरसरकारी संगठनों और संस्थाओं की सूची, उनकी वेबसाइट का पता, टेलीफ़ोन नंबर और उसमें काम करने वाले विशेषज्ञों के नाम और फ़ोन नंबर अपनी डायरी में ज़रूर रखिए। दरअसल, एक पत्रकार की विशेषज्ञता कुछ हद तक उसके अपने सूत्रों और स्रोतों पर निर्भर करती है। जैसे अगर आप आर्थिक विषयों पर विशेषज्ञता हासिल करना चाहते हैं और आपके पास परिचित अर्थशास्त्रियों और बाज़ार विशेषज्ञों के नाम और फ़ोन नंबर हैं तो आप उनसे बातचीत करके किसी घटना, फ़ैसले या नीति के विभिन्न पहलुओं को समझ सकते हैं या उसका निहितार्थ जानने की कोशिश कर सकते हैं।
इस तरह आप अपनी रुचि के क्षेत्र या विषय में विशेषज्ञता विकसित कर सकते हैं। लेकिन एक बात अवश्य याद रखनी चाहिए कि विशेषज्ञता एक दिन में नहीं आती। विशेषज्ञता एक तरह से अनुभव का पर्याय है। उस विषय में निरंतर दिलचस्पी और सक्रियता ही आपको विशेषज्ञ बना सकती है।
जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं, विशेष लेखन का दायरा बहुत बड़ा है और इसके कई पहलू हैं। हम यहाँ हरेक क्षेत्र के बारे में अलग-अलग चर्चा करने के बजाए कुछ चुनिंदा क्षेत्रों में विशेष लेखन की बारीकियों और उसकी शैली पर चर्चा करेंगे।
कारोबार और व्यापार
अगर आप रोज़ समाचारपत्र पढ़ते हो तो आपने ध्यान दिया होगा कि समाचारपत्र में कारोबार और अर्थ जगत से जुड़ी ख़बरों के लिए अलग से एक पृष्ठ होता है। कुछ अख़बारों में आर्थिक ख़बरों के दो पृष्ठ प्रकाशित होते हैं। यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि समाचारपत्र में अगर आर्थिक और खेल का पृष्ठ न हो तो वह संपूर्ण समाचारपत्र नहीं माना जाएगा।
इसकी वजह यह है कि अर्थ यानी धन हर आदमी के जीवन का मूल आधार है। हमारे रोज़मर्रा के जीवन में इसका ख़ास महत्त्व है। हम बाज़ार से कुछ ख़रीदते हैं, बैंक में पैसे जमा करते हैं, बचत करते हैं, किसी कारोबार के बारे में योजना बनाते है या कुछ भी ऐसा सोचते या करते हैं जिसमें आर्थिक फ़ायदे, नफ़ा-नुक़सान आदि की बात होती है तो इन सबका कारोबार और अर्थ जगत से संबंध जुड़ता है। यही कारण है कि कारोबार, व्यापार और अर्थ जगत से जुड़ी ख़बरों में काफ़ी पाठकों की रुचि होती है।
आप अकसर सुनते होंगे कि शेयर बाज़ार का सेंसेक्स इतना चढ़ा या नीचे गिर गया। इसी तरह सोने-चाँदी के भाव, विदेशी मुद्रा (जैसे डॉलर, पौंड आदि) की क़ीमत, ज़रूरी उपभोक्ता चीज़ों की क़ीमत या खेती-बाड़ी से जुड़ी चीज़ों की क़ीमत घटती-बढ़ती रहती है। इसके पीछे कौन-कौन से कारण हैं। आम लोगों को इससे क्या फ़ायदा या नुक़सान होगा या इसका उनके जीवन पर क्या असर पड़ेगा और उन्हें बचाव के लिए क्या करना चाहिए, आदि जानकारियों में आम पाठकों की भी दिलचस्पी होती है।
कारोबार, व्यापार और अर्थ जगत का क्षेत्र काफ़ी व्यापक है। इसमें कृषि से लेकर उद्योग तक और व्यापार से लेकर शेयर बाज़ार तक अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी क्षेत्र शामिल हैं। इन सभी क्षेत्रों में एक साथ विशेषज्ञता हासिल करना कठिन है। यही कारण है कि कारोबार और अर्थजगत में भी आपको कोई ख़ास क्षेत्र चुनना पड़ता है। जैसे कोई शेयर बाज़ार का विशेषज्ञ है तो कोई निवेश के मामलों का, कोई बैंकिंग का विशेषज्ञ है तो कोई प्रापर्टी के क्षेत्र में ज़्यादा जानता है, कोई बजट का जानकार है तो कोई मंडी का।
पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक पत्रकारिता का महत्त्व काफ़ी बढ़ा है। ऐसा इसलिए क्योंकि देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच रिश्ता गहरा हुआ है। ख़ासकर आर्थिक उदारीकरण और देश में खुली अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद से अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव आया है। राजनीति भी इससे अछूती नहीं है। वैसे भी अर्थनीति और राजनीति के बीच गहरा रिश्ता होता है। इसलिए एक आर्थिक पत्रकार को देश को राजनीति और उसमें हो रहे बदलाव की भी जानकारी होनी चाहिए।
आर्थिक मामलों की पत्रकारिता सामान्य पत्रकारिता की तुलना में काफ़ी जटिल होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि आम लोगों को इसकी शब्दावलियों के बारे में या उनके मतलब के बारे में ठीक से पता नहीं होता। उसे आम लोगों की समझ में आने लायक कैसे बनाया जाए, यह आर्थिक मामलों के पत्रकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होती है। लेकिन इसके साथ ही आर्थिक ख़बरों का एक ऐसा पाठकवर्ग भी है जो उस क्षेत्र से जुड़ा होने के कारण उसके बारे में काफ़ी जानता है। एक आर्थिक पत्रकार को इन दोनों तरह के पाठकों की ज़रूरत को पूरा करना पड़ता है। इसलिए आर्थिक मामलों पर विशेष लेखन करते हुए इस बात का हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह किस वर्ग के पाठक के लिए लिखा जा रहा है?
कारोबार और अर्थ जगत से जुड़ी रोज़मर्रा की ख़बरें उलटा पिरामिड-शैली में लिखी जाती हैं। शेयर बाज़ार के एक समाचार के उदाहरण पर ग़ौर कीजिए—
स्टॉकिस्टों की चौतरफ़ा बिकवाली से उड़द टूटी
नई दिल्ली—स्थानीय मंडी में स्टाकिस्टों की चौतरफ़ा बिकवाली से उड़द दो दिनों में 150 रुपए टूट जाने से गिरकर 3280/3290 रुपए रह गई। मुंबई में भी 100 रुपए लुढ़ककर 3100 रुपए बोली गई। मोठ भी 100 रुपए गिरकर 2650/2700 रुपए के निम्न स्तर पर आ गई। मसूर भी ललितपुर एवं सिहोरा लाइन से प्रचुर मात्रा में आने एवं ग्राहक के कमज़ोर होने से 25/50 रुपए टूटकर मोटी 1900 रुपए एवं टोटी 2450 रुपए रह गई। अरहर में भी 25 रुपए की मंदी आ गई, जिससे यहाँ भी मिलों की माँग ठंडी पड़ने एवं स्टॉकिस्टों की बिकवाली से 45/50 रुपए गिरकर 2325/2375 रुपए भाव रह गए। इसकी दाल में भी 50 रुपए की मंदी आ गई।
इन रोज़मर्रा की ख़बरों के अलावा सोने की बढ़ती क़ीमतों का विशेलषण करता एक फ़ीचर प्रस्तुत है। जो विशेष लेखन का अच्छा उदाहरण है।
नित नया शिखर, नया निखार
सन् 2005 और 2006 में शेयर बाज़ार की स्थिर गति से मझोले निवेशक भले ही इस दुविधा में रहे हों कि कौन-सा शेयर या म्युचुअल फंड ख़रीदें लेकिन अब उन्हें ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा तो उनके बैंक लॉकरों या बेडरूम की अलमारियों में बंद चमकदार पीली धातु ही दे रही है, आख़िर, सोने की क़ीमत 2005 में 18 फ़ीसदी बढ़ी, तो इस साल जनवरी से मई तक में ही उसमें 31 फ़ीसदी का और इज़ाफ़ा हो गया, कुल मिलाकर पिछले साढ़े पाँच साल में इसकी क़ीमत में 150 फ़ीसदी इज़ाफ़ा हुआ है ख़ास बात यह है कि इस धातु की चमक फीकी पड़ती ही नज़र नहीं आ रही।
आभूषणों के मालिकों को यह एहसास हो या न हो, आभूषण ख़रीददारों को यह इल्म निश्चित रूप से है। पिछले दिनों शादियों का सीज़न जब ज़ोरों पर था तो देश भर के आभूषण निर्माता अपने कलेक्शन को नए सिरे से डिज़ाइन करने में लगे थे। वे हलके वज़न के गहने बना रहे थे ताकि ख़रीदार की जेब पर अधिक भार न पड़े। इससे इस नतीजे पर न पहुँच जाइए कि बढ़ती क़ीमतों से ख़रीदारों की कतारें छोटी हो गईं। पिछले साल भारत को सोने की बढ़ती माँग पूरी करने के लिए 750 टन सोना आयात करना पड़ा, यह माँग 2004 के मुक़ाबले 100 टन अधिक बढ़ गई थी, विश्व स्वर्ण परिषद् को इसमें इस साल कोई नाटकीय बदलाव आने की उम्मीद नहीं है।
इसकी वजह भी है, शुरू से ही सोने में निवेश करते आए भारतीयों की इसके महत्त्व में पूरी आस्था है, लिहाज़ा वे इसमें निवेश करते रहेंगे। उन्हें पूरी उम्मीद है कि साल के अंत तक सोने की क़ीमतें 12,000 प्रति 10 ग्राम को छूने लगेंगी अन्य संपत्तियों के विपरीत सोने को निवेशक और उपभोक्ता दोनों ही ख़रीदते हैं। पहली श्रेणी के लोग इसे मुनाफ़ा कमाने के लिए ख़रीदते हैं तो दूसरे अपने शौक पूरे करने के लिए, आज भारत और विदेश में दोनों ही तरह के ख़रीदार सक्रिय हैं। हालाँकि सोने की क़ीमतें शेयर बाज़ार, सरकारी बांड या अचल संपत्ति की क़ीमतों से अधिक प्रभावित नहीं होती, इस बार इस क़ीमती धातु की क़ीमत इनसे टक्कर ले रही है। भारत और चीन में औद्योगिक माँग बढ़ने से ताँबा, जिंक और इस्पात की क़ीमतें भी पिछले दो साल से बढ़ती जा रही हैं। इस तरह पिछले 12 महीनों में सोने की क़ीमतों में 45 फ़ीसदी उछाल आया है इसके बावजूद यह वृद्धि तीसरे नंबर पर है, क्योंकि ताँबे ने 116 फ़ीसदी और चाँदी ने 78 फ़ीसदी बढ़ोतरी दर्ज़ की है।
ईंधन की क़ीमतें भी मानो आग में घी का काम कर रही हैं। पिछले हफ़्ते तेल की क़ीमत 75 डॉलर प्रति बैरल हो गई और यह 100 डॉलर प्रति बैरल का भयावह आँकड़ा भी छू सकती है। ख़ासकर भारत और चीन में तेल की क़ीमतों में गिरावट नहीं आई जैसा कि आनंद राठी सिक्युरिटीज के सह उपाध्यक्ष किशोर नारने कहते हैं, “तेल की ऊँची क़ीमतों से आमतौर पर अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति आती है। इससे मुद्राओं की क़ीमत घटने लगती है।”
बेशक ऐसा होता है, पिछले साल डॉलर की क़ीमत में 3 फ़ीसदी अवमूल्यन हुआ है, हालाँकि अमेरिका के फेडरल रिज़र्व ने ब्याज दर बढ़ाकर मुद्रास्फीति के प्रभाव पर नियंत्रण कर लिया है लेकिन चूँकि पिछले कई दशकों से तेल के नए स्रोत की खोज नहीं हो पाई है और तेल की मात्रा बढ़ाना लंबी और व्ययसाध्य प्रक्रिया है, तेल की क़ीमतों में जल्दी गिरावट के आसार नहीं है और केंद्रीय बैंक मुद्रा की आपूर्ति से छेड़छाड़ करके इससे होने वाली मुद्रास्फीति का मुक़ाबला नहीं कर सकते, यानी डॉलर और यूरो जैसी मुद्रा के मूल्य में अभी और गिरावट अवश्यंभावी है इससे दुनियाभर के समझदार निवेशक डॉलर प्रभावित निवेश मसलन सरकारी बॉण्ड और प्रतिभूति से पैसा निकालकर कहीं और (जी हाँ, आपका अनुमान सही है) सोने में निवेश करेंगे। उनका तर्क है कि मुद्रास्फीति से बचने के लिए इससे बढ़िया ढाल और क्या होगी।
जब सोने की क़ीमतें कुलाँचे भर रही हैं तो नए निवेशक भी इस ओर मुड़ रहे हैं, पिछले साल विश्व स्वर्ण परिषद् ने एक निवेश योजना शुरू की थी, जिसे गोल्ड एक्सचेंज ट्रेडेड फंड नाम दिया गया। यह एक तरह का म्युचुअल फंड है जहाँ प्रत्येक इकाई का मूल्य एक आउंस सोने का दसवाँ हिस्सा है। विश्व स्वर्ण परिषद् की भारत शाखा के प्रबंध निदेशक संजीव अग्रवाल कहते हैं, “जब से यह फंड लंदन और न्यूयॉर्क में उतारा गया है, गोल्ड म्युचुअल फंड्स ने 500 टन सोना उगाह लिया है,” इसके अलावा सोने में निवेश करने वाले निवेशक गहनों, सोने की छड़ों और गिन्नियों में ही निवेश नहीं कर रहे, वे एमसीएक्स और एनसीडीएक्स जैसे कमोडिटी एक्सचेंज के ज़रिए सोने के डीमैट स्वरूप में भी निवेश कर रहे हैं। निवेशक गोल्ड प्रयूचर्स (भविष्य में सोने की क़ीमत बढ़ने की शर्त) में भी निवेश कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ़ 4 फ़ीसदी मार्जिन का ही भुगतान करना होता है इससे न सिर्फ़ भारी मात्रा में ख़रीद हो रही है—इसी वजह से क़ीमतें भी बढ़ रही हैं—बल्कि यह सुरक्षित भी है। इससे लूटपाट और बैंक डकैती में सोना गँवाने से भी बचा जा सकता है। एक तरह से यह कर की दृष्टि से भी एक बेहतर विकल्प है, जैसा कि बताते हैं। इस पर अल्प अवधि पूँजी लाभ कर ही लगता है, जबकि आभूषण या डीमैट गोल्ड पर अतिरिक्त संपत्ति कर लगता है।
ज़ाहिर है, माँग कम ही नहीं हो पा रही है। बाज़ार का नियम है कि माँग की तुलना में आपूर्ति कम हो तो निष्कर्ष की सहज ही कल्पना की जा सकती है—यानी भारी मूल्य वृद्धि। विश्व में सर्वाधिक सोना उत्पादन करने वाला देश दक्षिण अफ़्रीका भी अब कम उत्पादन कर रहा है। सन् 2005 में इसका सोना उत्पादन गिरकर 300 टन हो गया, जबकि उससे पिछले साल यह आँकड़ा 346 टन था। कोटक कमोडिटी सर्विसेस में कमोडिटी विश्लेषक राघवन सुंदरराजन इसकी व्याख्या करते हैं, “इस साल कीमतें बढ़ने की वजह एंग्लोगोल्ड असांति की 2006 को यह घोषणा थी कि सन् 2006 में सोने का उत्पादन घट जाएगा और 2007 में ही स्थिर हो पाएगा।” इसलिए थोड़े-बहुत उतार-चढ़ाव के अलावा सोने की क़ीमतों में जल्द ही गिरावट आने वाली नहीं है। गीतांजलि ग्रुप के प्रबंध निदेशक मेहुल चोकसी भी मानते हैं, “अर्थशास्त्री अब यह तथ्य मानने को बाध्य होने लगे हैं कि हर तरह की संपत्ति की कीमत साथ-साथ बढ़ने लगी है।”
अगर सीधे शब्दों में कहें तो वैसे तो शेयर बाज़ार और सोने की क़ीमतों में कोई सीधा संबंध नहीं माना जाता है, लेकिन आज यह एक सचाई है कि दोनों साथ-साथ नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं। यह सोने के निवेशकों के लिए चिंता का विषय क़तई नहीं होना चाहिए। कई ख़रीदार तो शर्त लगा रहे हैं कि दोनों का बढ़ना जारी रहेगा। यानी सोना चमक के साथ मुनाफ़े की सुगंध भी बिखेरता रहेगा।
खेल
खेल का क्षेत्र ऐसा है जिसमें अधिकांश लोगों की रुचि होती है। खेल हर आदमी के जीवन में नई ऊर्जा का संचार करता है। बचपन से ही हमारी विभिन्न खेलों में रुचि होती है और हममें से अधिकांश के भीतर एक खिलाड़ी ज़रूर होता है। जीवन की भागदौड़ और दूसरी ज़िम्मेदारियों की वजह से ये खिलाड़ी बेशक कहीं दब जाता हो। लेकिन खेलों में दिलचस्पी बनी रहती है। इसलिए आप देखेंगे कि क्रिकेट हो या हॉकी, टेनिस हो या फ़ुटबॉल, ओलंपिक हो या एशियाई खेल—ये सब एक उत्सव बन जाते हैं। कई खेल तो देश की संस्कृति में रच-बस जाते हैं और इसलिए उन खेलों के बारे में पढ़ने वालों और उसे देखने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा होती है।
इसलिए हैरत की बात नहीं है कि अख़बारों और दूसरे माध्यमों में खेलों को बहुत अधिक महत्त्व मिलता है। सभी समाचारपत्रों में खेल के एक या दो पृष्ठ होते हैं और कोई भी टी.वी. और रेडियो बुलेटिन खेलों की ख़बर के बिना पूरा नहीं होता है। यही नहीं, समाचार माध्यमों में खेलों का महत्त्व लगातार बढ़ता जा रहा है। समाचारपत्र और पत्रिकाओं में खेलों पर विशेष लेखन, खेल विशेषांक और खेल परिशिष्ट प्रकाशित हो रहे हैं। इसी तरह टी.वी. और रेडियो पर खेलों के विशेष कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं।
पत्र-पत्रिकाओं में खेलों के बारे में लिखने वालों के लिए ज़रूरी है कि वे खेल की तकनीक, उसके नियमों, उसकी बारीकियों और उससे जुड़ी तमाम बातों से भलीभाँति परिचित हों। लेकिन आर्थिक मामलों की तरह ही किसी एक खेल लेखक के लिए हर खेल के बारे में उतने ही अधिकार के साथ लिखना या जानना मुश्किल होता है। इसलिए कोई क्रिकेट का जानकार होता है तो कोई हॉकी की बारीकियाँ बेहतर समझता है। किसी का एथलेटिक्स पर अधिकार होता है तो कोई फुटबॉल का जानकार होता है।
लेकिन आप जिस भी खेल में विशेषज्ञता हासिल करें, उसके बारे में आपकी जानकारी और समझदारी का स्तर ऊँचा होना चाहिए। आपको उस खेल में बनने वाले रिकॉर्ड्स या कीर्तिमानों के बारे में पता होना चाहिए। तथ्यों और पुराने रिकॉर्ड्स को तो अब इंटरनेट पर भी ढूँढ़ा जा सकता है, लेकिन खेल के नियम या उसकी बारीकियाँ या किसी खिलाड़ी की तकनीक के बारे में जानने-समझने वाले ही इस बारे में अच्छा लिख या बोल सकते हैं।
लेकिन एक खेल पत्रकार को अपनी इन जानकारियों को दिलचस्प तरीक़े से पेश करना चाहिए। वह जब किसी मैच का, किसी खिलाड़ी विशेष के प्रदर्शन का, खेल की तकनीक का और इससे जुड़े तमाम पहलुओं का विश्लेषण करता है तो यह विश्लेषण खेल की तरह ही रोमांचक होना चाहिए। खेलों की रिपोर्टिंग और विशेष लेखन की भाषा और शैली में एक ऊर्जा, जोश, रोमांच और उत्साह दिखना चाहिए। इसके अलावा एक और बात ध्यान में रखनेवाली है कि खेल की ख़बर या रिपोर्ट उलटा पिरामिड शैली में शुरू होती है लेकिन दूसरे पैराग्राफ़ से वह कथात्मक यानी घटनानुक्रम शैली में चली जाती है। क्रिकेट की एक सामान्य ख़बर का उदाहरण देखिए—
“कोलंबो, 15 अगस्त (एपी)। चाएँ हाथ के सीमर चामिंडा वास ने आज घातक गेंदबाज़ी करते हुए छह विकेट लिए और श्रीलंका ने उनके इस प्रदर्शन की बदौलत दक्षिण अफ़्रीका को दूसरे टेस्ट में 313 रनों से रौंद डाला। इस जीत के साथ ही श्रीलंका ने दक्षिण अफ़्रीका के ख़िलाफ़ सीरीज़ 1-0 से जीत ली। दक्षिण अफ़्रीका के ख़िलाफ़ श्रीलंका की यह पहली सीरीज़ जीत है।
जीत के लिए 493 रनों का विशाल लक्ष्य लेकर खेल रही दक्षिण अफ़्रीकी टीम मैच के अंतिम दिन दूसरी पारी में सिर्फ 179 रनों पर ढेर हो गई।”
इस मुखड़े के बाद ख़बर का विस्तार एक कथात्मक रूप ले लेता है, जिसमें उलटा पिरामिड शैली के बजाए कथात्मक शैली का उपयोग किया गया है—
“एसएससी ग्राउंड पर दक्षिण अफ़्रीका ने आज दो विकेट पर 21 रनों से आगे खेलना शुरू किया लेकिन श्रीलंका के तेज गेंदबाज़ों ने उसके शीर्ष क्रम के बल्लेबाज़ों को ध्वस्त कर दिया। लंच के समय तक दक्षिण अफ़्रीका 5 विकेट पर 125 रन ही बना पाया था। वास ने पहले कल नॉट आउट रहे जैक्स कैलिस को आउट कर मेहमान टीम को करारा झटका दिया। केलिस ने तेज़ी से उठती हुई गेंद पर दूसरी स्लिप में खड़े तिलकरत्ने दिलशान को कैच दे दिया। कप्तान ग्रीन स्मिथ (17) भी दो ओवर बाद तेज़ गेंदबाज़ ललित मलिंगा का शिकार बने। उन्होंने तिलान समरवीरा को शार्ट स्क्वेयर लेग पर कैच दे दिया और श्रीलंका का स्कोर चार विकेट पर 26 रन हो गया। दक्षिण अफ़्रीका का पाँचवाँ विकेट भी इस स्कोर पर गिर गया जब जैक्स रुडोल्फ, वास की गेंद को पुल करने की कोशिश में गेंद को ठीक से टाइम नहीं कर पाए और डीप में खड़े मलिंगा को कैच दे बैठे। उन्होंने एक रन बनाया।
बोएटा डिपनार और मार्क बाउचर ने छठे विकेट के लिए 252 गेंदों में 101 रनों की साझेदारी कर पारी को कुछ हद तक संभाला लेकिन वास ने लंच के बाद सातवें ओवर में इस साझेदारी को भी तोड़ दिया। उन्होंने बाउचर को बल्ले का किनारा देने के लिए विवश किया और विकेटकीपर रोमेश कालुवितर्ना ने कैच पकड़ने में कोई ग़लती नहीं की। बाउचर ने 51 रन बनाए। बाउचर 135 मिनट क्रोज पर रहे जिसमें उन्होंने 132 गेंदें खेलों और आठ चौके जमाए। शाउन पोलक सस्ते में आउट हुए। उन्होंने ऑफ़ स्पिनर दिलशान की गेंद पर मरवन अटापट्ट को शार्ट मिड विकेट पर कैच दे दिया। डिपनार आठ चौकों की मदद से 59 रन बनाकर नॉट आउट रहे। दक्षिण अफ़्रीकी टीम श्रीलंका के ख़िलाफ़ इससे पहले खेली गई पाँच टेस्ट सीरीज़ों में चार में जीती थी जबकि एक डा रही थी। गाले में दोनों के बीच मौजूदा सीरीज़ का पहला टैस्ट ड्रा रहा था।”
क्रिकेट के इस सामान्य समाचार के बाद क्रिकेट पर ही एक विशेष रिपोर्ट प्रस्तुत है—
घर में प्रयोग भारी पड़ा
पुरानी कहावत है, लोग जल्दी बूढ़े क्यों होते हैं? क्योंकि वे काम करते हैं, लेकिन मुंबई में भारत के साथ जो कुछ हुआ उसके पीछे कुछ दूसरी वजहें रहीं, नए प्रयोग और सितारों से लकदक टीम अपने ही मैदान में ढेर हो गई, पाँच बल्लेबाज़ों के साथ खेलने का फ़ैसला कुछ तो दबाव में और कुछ यह सोच कर किया गया था कि इस अनुभव का फ़ायदा विदेशी दौरों के समय काम आ सकता है, तो पाँच गेंदबाज़ों के साथ मैदान में उतरने के फ़ैसले के पीछे कहीं-न-कहीं यह बात थी कि घरेलू धीमी पिचों पर 20 विकेट लेना हमेशा मुश्किल रहा है, यह फ़ैसला यह सोच कर लिया गया था कि वानखेड़े की नम पिच का शुरुआती फ़ायदा उठाया जाए, लेकिन किसे पता था कि यह फ़ैसला ग़लत साबित होगा और इंग्लैंड के खिलाफ़ इसी विकेट पर उत्तरे ये पाँच बल्लेबाज़ सस्ते में लौट आएँगे, वास्तव में हमें टेस्ट सीरीज़ जीतने की कोशिश करनी चाहिए थी, इसका मतलब है किसी एक गेंदबाज़ को बाहर कर वीवीएस लक्ष्मण को टीम में जगह दी जाती और टॉस जीतने पर पहले बल्लेबाज़ी की जाती।
लेकिन, भारतीय टीम ने एक के बाद एक कई ग़लतियाँ कर डालीं, यह सब इंग्लैंड की उस टीम के ख़िलाफ़ हुआ जिसमें न तो माइकल वॉन और ट्रेस्कोथिक जैसे बल्लेबाज़ थे और न साइमन जोंस, स्टीव हरमिशन और नंबर वन स्पिनर गाइल्स जैसे गेंदबाज़। हैरत नहीं इंग्लैंड की स्थिति वैसी ही थी जैसे राहुल द्रविड़, सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग, अनिल कुंबले, इरफान पठान और मौजूदा फ़ॉर्म में चल रहे मुनाफ़ पटेल या हरभजन सिंह के बग़ैर भारतीय टीम विदेश में कोई टेस्ट जीत ले।
भारतीयों को भविष्य की रणनीति पर काम करने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन घरेलू टेस्ट सीरीज़ का इस्तेमाल विदेश में क़िस्मत आजमाने के लिए करना न तो अच्छी रणनीति है और न ही क्षम्य। भारतीय उपमहाद्वीप में दौरे से पहले जहाँ विदेशी टीमें बहुत सावधानी बरतती हैं और ख़ासी योजना बनाती हैं, वहीं घर में भारत के टेस्ट रिकॉर्ड का बचाव करना मुश्किल होता जा रहा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि टीम बचाव करने लायक है ही नहीं।
घरेलू मैदानों पर भारत अपनी बल्लेबाज़ी और स्पिन गेंदबाज़ी की वजह से टेस्ट जीतता रहा है, जबकि विदेश में मिले सबक से उसने महसूस किया कि उसे तेज़ गेंदबाज़ी की ओर ध्यान देना चाहिए, आप चाहे जितने गेंदबाज़ रख लें, आपको पाँच बल्लेबाज़ और कुछ प्रार्थना की ज़रूरत होगी, अब तो चेपक या इडेन गार्डेन या फ़िरोजशाह में हमें वह करना चाहिए जो हम कर सकते हैं, किसी भी देश की क्रिकेट टीम की ताक़त इस बात से आँकी जाती है कि उसकी टेस्ट टीम कितनी मज़बूत है, इंग्लैंड के साथ होने वाले सात एकदिवसीय मैचों के नतीजे चाहे जो हों लेकिन यह दिख रहा है कि भारत की टेस्ट टीम बिखर चुकी है। फ्रील्डिंग के मामले में टीमों का प्रदर्शन अलग-अलग सत्रों में ख़राब रहा है लेकिन भारतीय टेस्ट टीम झील्डिंग के मामले में पूरी तरह बेदम दिख रही है, जब स्लिप पर फ्रॉल्डिंग करने वाले दुनिया के चुनिंदा क्रिकेटरों में शुमार राहुल द्रविड़ सीरीज़ के हर मैच में कैच छोड़ रहे हों तो आप समझ सकते हैं कि कहीं कुछ चुक गया है, आप उस स्थिति का अंदाज़ा लगा सकते हैं जब युवराज सिंह मैदान में पस्त दिख रहे हों, विशेषज्ञ खिलाड़ी ड्रेसिंग रूम में बैठे हों और ग़लत आदमी को ग़लत जगह पर खड़ा किया जाए, यानी सब कुछ ठीक नहीं है।
यह जगज़ाहिर है कि चैपल गैरपारंपरिक और नए तरीक़े से ट्रेनिंग दे रहे हैं, वे बल्लेबाज़ी में पैनापन लाने के लिए उत्तेजना जगाने जैसी ड्रिल करवाते हैं, तो फील्डिंग में चुस्ती लाने के लिए मानसिक एकाग्रता पर ध्यान देते हैं, वे नए प्रयोग कर रहे हैं और उनका ज़ोर मानसिक प्रशिक्षण पर भी है। उनका यह तरीक़ा अनूठा है, डिल में भी उत्साह नज़र आ रहा है। दरअसल, चैपल सिंपसन के तरीक़े से आगे อน का प्रयोग कर रहे हैं, आस्ट्रेलिया के पूर्व कोच बाँब सिंघसन आस्ट्रेलिया की ‘स्लिप ब्रिगेड’ को घंटों बैट के किनारे से निकली गेंद को लपकने की प्रैक्टिस करवाते थे। भारत में अजहरूद्दीन ने हैदराबाद में पिच रोलर से निकली गेंदों के सैंकड़ों कैच लपके तब जाकर उनकी हथेलियाँ किसी भी कोण से आने वाली गेंद को लपकने की अभ्यस्त हो पाई थीं। विविधता भरी ट्रेनिंग के उलट उसकी पुनरावृत्ति—जो चैपल का तरीक़ा है—इस नज़रिए के दो छोरों को दिखाती है, पसंद-नापसंद और विश्वास के मामले में वैपल बहुत दृढ़ हैं और जैसा कि सौरव गांगुली प्रकरण ने साबित कर दिया कि वे हमलावर होने से भी नहीं चूकते। अब यदि ख़ासतौर से टेस्ट टीम की फील्डिंग का स्तर सुधारने की बात है तो इस बारे में चैपल को नहीं, द्रविड़ को सोचना होगा। आख़िर यह उनकी टीम है और ख़राब फील्डिंग का असर उनके गेंदबाज़ों के प्रदर्शन पर पड़ता है।
मुंबई में मिली हार भारत के लिए यह पिछले चार टेस्ट मैचों में दूसरी है, जिसमें सात बल्लेबाज़ों ने कुल 25 रन बनाए—साबित करती है कि जो मिथक फैलाया जा रहा था वह गलत था। कराची में मिली हार के बाद भारतीय खेमे में फुसफुसाहट हो रही थी कि कैसे एक पूर्व कप्तान के लिए कमरा बदलना खेल से ज़्यादा अहम हो गया था। हर बात के लिए गांगुली को दोष नहीं दिया जा सकता। इस हार के लिए तो क़तई नहीं।
विशेष लेखन के इस अध्याय में हमने कुछ प्रचलित क्षेत्रों की बात की। हालाँकि विषय बहुत से है, उनके आयाम कई हैं और विशेषज्ञता हासिल करने के उनके पैमाने अलग-अलग हैं। मूल बात यह है कि जब भी हम किसी ख़ास विषय को उठाते हैं, उसके बारे में लिखते या बात करते हैं तो इस बात का ध्यान रखना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि हमारा पाठक, दर्शक या श्रोता कौन है, हमारी बात उसे समझ में आ रही है या नहीं, हम अपनी बातों की अभिव्यक्ति ठीक से कर पा रहे हैं या नहीं, हमारे तथ्य और तर्क में तालमेल है या नहीं। ये तमाम बातें ऐसी हैं जो किसी भी लेखन को विशिष्टता प्रदान करती हैं।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 87)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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