विभिन्न माध्यमों के लिए लेखन
vibhinn madhymon ke liye lekhan
नोट
प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
ख़बर लिखना बहुत ही रचनात्मक काम हो सकता है। उतना ही रचनात्मक, जितना कविता लिखना; दोनों का उद्देश्य मनुष्य को और समाज को ताक़त पहुँचाना है। ख़बर में लेखक तथ्यों को बदल नहीं सकता, पर दो या दो से अधिक तथ्यों के मेल से असलियत खोल सकता है।
—रघुवीर सहाय
एक नजर में...
विभिन्न जनसंचार माध्यमों के लिए लेखन के अलग-अलग तरीक़े हैं। अख़बार और पत्र-पत्रिकाओं में लिखने की अलग शैली है, जबकि रेडियो और टेलीविज़न के लिए लिखना एक अलग कला है। चूँकि माध्यम अलग-अलग हैं इसलिए उनकी ज़रूरतें भी अलग हैं। विभिन्न माध्यमों के लिए लेखन के अलग-अलग तरीक़ों को समझना बहुत ज़रूरी है। इन माध्यमों के लेखन के लिए बोलने, लिखने के अतिरिक्त पाठकों-श्रोताओं और दर्शकों की ज़रूरत को भी ध्यान में रखा जाता है।
उम्मीद है कि आप नियमित रूप से अख़बार पढ़ते होंगे। इसके अलावा मनोरंजन या समाचार जानने के लिए टी.वी. भी देखते होंगे और रेडियो भी सुनते होंगे। संभव है कि आप कभी-कभार इंटरनेट पर भी समाचार पढ़ते, सुनते या देखते हों। क्या आपने कभी ग़ौर किया है कि जनसंचार के इन सभी प्रमुख माध्यमों में, समाचारों के लेखन और प्रस्तुति में क्या अंतर है? कभी ध्यान से किसी शाम या रात को टी.वी. और रेडियो पर सिर्फ़ समाचार सुनिए और मौक़ा मिले तो इंटरनेट पर जाकर उन्हीं समाचारों को फिर से पढ़िए। अगले दिन सुबह अख़बार ध्यान से पढ़िए। अब बताइए कि इन सभी माध्यमों में पढ़े, सुने या देखे गए समाचारों की लेखन-शैली, भाषा और प्रस्तुति में आपको क्या फ़र्क़ नज़र आया? उनमें कोई विशेष अंतर है भी या नहीं?
निश्चय ही, इन सभी माध्यमों में समाचारों की लेखन-शैली, भाषा और प्रस्तुति में आपको कई अंतर देखने को मिले होंगे। सबसे सहज और आसानी से नज़र आनेवाला अंतर तो यही दिखाई देता है कि जहाँ अख़बार पढ़ने के लिए है, वहीं रेडियो सुनने के लिए और टी.वी. देखने के लिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। इंटरनेट पर पढ़ने, सुनने और देखने, तीनों की ही सुविधा है। ज़ाहिर है कि अख़बार छपे हुए शब्दों का माध्यम है जबकि रेडियो बोले हुए शब्दों का।
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों के बीच फ़र्क़ को समझने के लिए सभी माध्यमों के लेखन की बारीकियों को समझना ज़रूरी है। लेकिन इन माध्यमों के बीच के फ़र्क़ को आप तभी समझ सकते हैं जब आप हर माध्यम की विशेषताओं, उसकी ख़ूबियों और ख़ामियों से परिचित हों। हर माध्यम की अपनी कुछ ख़ूबियाँ हैं तो कुछ ख़ामियाँ भी। ख़बर लिखने के समय हमें इनका पूरा ध्यान रखना पड़ता है और इन माध्यमों की ज़रूरत को समझना पड़ता है।
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों की ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों से आपको रोज़, कम या ज़्यादा, सामना पड़ता होगा। अगर आपसे पूछा जाए कि आप इन सभी माध्यमों में सबसे अधिक किसे पसंद करते हैं और क्यों, तो आपका जवाब क्या होगा? शायद आप थोड़ा सोच में पड़ जाएँ। आपका उत्तर चाहे जो हो, इतना तय है कि इस सवाल का कोई एक निश्चित जवाब नहीं है। संभव है आपको टी.वी. ज़्यादा पसंद हो और आपके दोस्त को रेडियो। आपका दोस्त रेडियो अपने पढ़ने के कमरे में फ़ुर्सत से या कुछ और काम करते हुए सुनता हो। इसी तरह आपके किसी और साथी को पढ़ना बहुत पसंद हो और उसके फ़ुर्सत के क्षण अख़बार और पत्रिकाओं के साथ गुज़रते हों जबकि आपका कोई अन्य दोस्त इंटरनेट पर चैटिंग करते या कुछ और पढ़ते देखते हुए उसी से चिपके रहना पसंद करता हो।
ज़ाहिर है सब की अपनी-अपनी पसंद है। लेकिन सब की पसंद के पीछे कुछ कारण ज़रूर हैं। आप या आपके अन्य दोस्त अलग-अलग जनसंचार माध्यमों को इसलिए अधिक पसंद करते हैं क्योंकि उनकी विशेषताएँ या ख़ूबियाँ, आपकी या आपके अन्य दोस्तों के मिज़ाज, रुचियों, ज़रूरतों और पहुँच के अनुकूल हैं। स्पष्ट है कि हम सब अपनी-अपनी रुचियों, ज़रूरतों और स्वभाव के मुताबिक़ माध्यम चुनते और उनका इस्तेमाल करते हैं। इसका अर्थ यह भी है कि हर माध्यम की अपनी कुछ विशेषताएँ या ख़ूबियाँ हैं तो कुछ ख़ामियाँ भी हैं। जिसके कारण कोई माध्यम-विशेष किसी को अधिक पसंद आता है तो किसी को कम।
लेकिन इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि जनसंचार का कोई एक माध्यम सबसे अच्छा या बेहतर है या कोई एक-दूसरे से कमतर है। सब की अपनी कुछ ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ हैं। जैसे इंद्रधनुष की छटा अलग-अलग रंगों के एक साथ आने से बनती है, वैसे ही जनसंचार के विभिन्न माध्यमों की असली शक्ति उनके परस्पर पूरक होने में है। जनसंचार के विभिन्न माध्यमों के बीच फ़र्क चाहे जितना हो लेकिन वे आपस में प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक और सहयोगी हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि अख़बार में समाचार पढ़ने और रुककर उस पर सोचने में एक अलग तरह की संतुष्टि मिलती है, जबकि टी.वी. पर घटनाओं की तस्वीरें देखकर उसकी जीवंतता का एहसास होता है। इस तरह का रोमांच अख़बार या इंटरनेट पर नहीं मिल सकता। इसी तरह रेडियो पर ख़बरें सुनते हुए आप जितना उन्मुक्त होते हैं, उत्तना किसी और माध्यम में संभव नहीं है। उधर, इंटरनेट अंतरक्रियात्मकता (इंटरएक्टिविटी) और सूचनाओं के विशाल भंडार का अद्भुत माध्यम है, बस एक बटन दबाइए और सूचनाओं के अथाह संसार में पहुँच जाइए। जिस भी विषय पर आप जानना चाहें, इंटरनेट के ज़रिए वहाँ पहुँच सकते हैं।
ये सभी माध्यम हमारी अलग-अलग ज़रूरतों को पूरा करते हैं और इन सभी की हमारे दैनिक जीवन में कुछ न कुछ उपयोगिता है। यही कारण है कि अलग-अलग माध्यम होने के बावजूद इनमें से कोई समाप्त नहीं हुआ और इन सभी माध्यमों का लगातार विस्तार और विकास हो रहा है। आइए अब इन सभी माध्यमों की अलग-अलग ख़ूबियों और ख़ामियों को समझने की कोशिश करें।
प्रिंट माध्यम :
प्रिंट यानी मुद्रित माध्यम जनसंचार के आधुनिक माध्यमों में सबसे पुराना है। असल में आधुनिक युग की शुरुआत ही मुद्रण यानी छपाई के आविष्कार से हुई। हालाँकि मुद्रण की शुरुआत चीन से हुई लेकिन आज हम जिस छापेख़ाने को देखते हैं, इसके आविष्कार का श्रेय जर्मनी के गुटेनबर्ग को जाता है। छापाख़ाना यानी प्रेस के आविष्कार ने दुनिया की तस्वीर बदल दी। यूरोप में पुनर्जागरण ‘रेनेसाँ’ की शुरुआत में छापेख़ाने की अहम भूमिका थी। भारत में पहला छापाख़ाना सन् 1556 में गोवा में खुला। इसे मिशनरियों ने धर्म प्रचार की पुस्तके छापने के लिए खोला था। तब से अब तक मुद्रण तकनीक में काफ़ी बदलाव आया है और मुद्रित माध्यमों का व्यापक विस्तार हुआ है।
मुद्रित माध्यमों के तहत अख़बार, पत्रिकाएँ, पुस्तके आदि हैं। हमारे दैनिक जीवन में इनका कितना महत्त्व है, यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है। मुद्रित माध्यमों की सबसे बड़ी विशेषता या शक्ति यह है कि छपे हुए शब्दों में स्थायित्व होता है। उसे आप आराम से और धीरे-धीरे पढ़ सकते हैं। पढ़ते हुए उस पर सोच सकते हैं। अगर कोई बात समझ में नहीं आई तो उसे दुबारा या जितनी बार इच्छा करे, उतनी बार पढ़ सकते हैं।
यही नहीं, अगर आप अख़बार या पत्रिका पढ़ रहे हों तो आप अपनी पसंद के अनुसार किसी भी पृष्ठ और उस पर प्रकाशित किसी भी समाचार या रिपोर्ट से पढ़ने की शुरुआत कर सकते हैं। ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि आप अख़बार पहले पृष्ठ और पहली ख़बर से पढ़ना शुरू करें। साथ ही मुद्रित माध्यमों के स्थायित्व का एक लाभ यह भी है कि आप उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रख सकते हैं और उसे संदर्भ की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।
मुद्रित माध्यमों की दूसरी बड़ी विशेषता यह है कि यह लिखित भाषा का विस्तार है। ज़ाहिर है कि इसमें लिखित भाषा की सभी विशेषताएँ शामिल हैं। लिखित और मौखिक भाषा में सबसे बड़ा अंतर यह है कि लिखित भाषा अनुशासन की माँग करती है। बोलने में एक स्वतःस्फूर्तता होती है लेकिन लिखने में आपको भाषा, व्याकरण, वर्तनी और शब्दों के उपयुक्त इस्तेमाल का ध्यान रखना पड़ता है। यही नहीं, अगर लिखे हुए को प्रकाशित होना है यानी काफ़ी लोगों तक पहुँचना है तो आपको एक प्रचलित भाषा में लिखना पड़ता है ताकि उसे अधिक से अधिक लोग समझ पाएँ।
मुद्रित माध्यमों की तीसरी विशेषता यह है कि यह चिंतन, विचार और विश्लेषण का माध्यम है। इस माध्यम में आप गंभीर और गूढ़ बातें लिख सकते हैं क्योंकि पाठक के पास न सिर्फ़ उसे पढ़ने, समझने और सोचने का समय होता है बल्कि उसकी योग्यता भी होती है। असल में, मुद्रित माध्यमों का पाठक वही हो सकता है जो साक्षर हो और जिसने औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा के ज़रिए एक विशेष स्तर की योग्यता भी हासिल की हो।
लेकिन मुद्रित माध्यमों की यही कमज़ोरी या सीमा भी है। निरक्षरों के लिए मुद्रित माध्यम किसी काम के नहीं हैं। साथ ही, मुद्रित माध्यमों के लिए लेखन करने वालों को अपने पाठकों के भाषा-ज्ञान के साथ-साथ उनके शैक्षिक ज्ञान और योग्यता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें पाठकों की रुचियों और ज़रूरतों का भी पूरा ध्यान रखना पड़ता है। मुद्रित माध्यमों की एक और सीमा यह है कि वे रेडियो, टी.वी. या इंटरनेट की तरह तुरंत घटी घटनाओं को संचालित नहीं कर सकते। ये एक निश्चित अवधि पर प्रकाशित होते हैं। जैसे अख़बार 24 घंटे में एक बार या साप्ताहिक पत्रिका सप्ताह में एक बार प्रकाशित होती है। अख़बार या पत्रिका में समाचारों या रिपोर्ट को प्रकाशन के लिए स्वीकार करने की एक निश्चित समय-सीमा होती है, जिसे डेडलाइन कहते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर समय सीमा समाप्त होने के बाद कोई सामग्री प्रकाशन के लिए स्वीकार नहीं की जाती। इसलिए मुद्रित माध्यमों के लेखकों और पत्रकारों को प्रकाशन की समय-सीमा का पूरा ध्यान रखना पड़ता है।
इसी तरह मुद्रित माध्यमों में लेखक को जगह (स्पेस) का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए। जैसे किसी अखबार या पत्रिका के संपादक ने अगर आपको 250 शब्दों में रिपोर्ट या फ़ीचर लिखने को कहा है तो आपको उस शब्द सीमा का ध्यान रखना पड़ेगा। इसकी वजह यह है कि अख़बार या पत्रिका में असीमित जगह नहीं होती। साथ ही उन्हें विभिन्न विषयों और मुद्दों पर सामग्री प्रकाशित करनी होती है। महत्त्व और जगह की उपलब्धता के अनुसार वे निश्चित करते हैं कि किसे कितनी जगह मिलेगी।
मुद्रित माध्यम के लेखक या पत्रकार को इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता है कि छपने से पहले आलेख में मौजूद सभी ग़लतियों और अशुद्धियों को दूर कर दिया जाए क्योंकि एक बार प्रकाशन के बाद वह ग़लती या अशुद्धि वहीं चिपक जाएगी। उसे सुधारने के लिए अख़बार या पत्रिका के अगले अंक का इंतज़ार करना पड़ेगा। यही कारण है कि अख़बार या पत्रिका में यथासंभव कोशिश की जाती है कि कोई ग़लती या अशुद्धि न छप जाए। इसके लिए अख़बार/पत्रिकाओं में संपादक के साथ एक पूरी संपादकीय टीम होती है जिसकी मुख्य ज़िम्मेदारी प्रकाशन के लिए जा रही सामग्री से ग़लतियों और अशुद्धियों को हटाकर उसे प्रकाशन योग्य बनाना है।
रेडियो :
रेडियो श्रव्य माध्यम है। इसमें सब कुछ ध्वनि, स्वर और शब्दों का खेल है। इन सब वजहों से रेडियो को श्रोताओं से संचालित माध्यम माना जाता है। रेडियो पत्रकारों को अपने श्रोताओं का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इसकी वजह यह है कि अख़बार के पाठकों को यह सुविधा उपलब्ध रहती है कि वे अपनी पसंद और इच्छा से कभी भी और कहाँ से भी पढ़ सकते हैं। अगर किसी समाचार लेख या फ़ीचर को पढ़ते हुए कोई बात समझ में नहीं आई तो पाठक उसे फिर से पढ़ सकता है या शब्दकोश में उसका अर्थ देख सकता है या किसी से पूछ सकता है। लेकिन रेडियो के श्रोता को यह सुविधा उपलब्ध नहीं होती। वह अख़बार की तरह रेडियो समाचार बुलेटिन को कभी भी और कहीं से भी नहीं सुन सकता। उसे बुलेटिन के प्रसारण समय का इंतज़ार करना होगा और फिर शुरू से लेकर अंत तक बारी-बारी से एक के बाद दूसरा समाचार सुनना होगा। इस बीच, वह इधर-उधर नहीं आ जा सकता और न ही उसके पास किसी गूढ़ शब्द या वाक्यांश के आने पर शब्दकोश का सहारा लेने का समय होता है। अगर वह शब्दकोश में अर्थ ढूँढ़ने लगेगा तो बुलेटिन आगे निकल जाएगा।
स्पष्ट है कि रेडियो में अख़बार की तरह पीछे लौटकर सुनने की सुविधा नहीं है। अगर रेडियो बुलेटिन में कुछ भी भ्रामक या अरुचिकर है तो संभव है कि श्रोता तुरंत स्टेशन बंद कर दे। दरअसल, रेडियो मूलतः एकरेखीय (लीनियर) माध्यम है और रेडियो समाचार बुलेटिन का स्वरूप, ढाँचा और शैली इस आधार पर ही तय होता है। रेडियो की तरह टेलीविज़न भी एकरेखीय माध्यम है लेकिन वहाँ शब्दों और ध्वनियों की तुलना में दृश्यों तस्वीरों का महत्त्व सर्वाधिक होता है। टी.वी. में शब्द दृश्यों के अनुसार और उनके सहयोगी के रूप में चलते हैं। लेकिन रेडियो में शब्द और आवाज़ ही सब कुछ है।
वैसे तो तीनों ही माध्यमों-प्रिंट, रेडियो और टी.वी. की अपनी-अपनी चुनौतियाँ हैं लेकिन संभवतः रेडियो प्रसारणकर्ताओं के लिए अपने श्रोताओ को बाँधकर रखने की चुनौती सबसे कठिन है।
रेडियो समाचार की संरचना
रेडियो के लिए समाचार लेखन अख़बारों से कई मामलों में भिन्न है। चूँकि दोनों माध्यमों की प्रकृति अलग-अलग है, इसलिए समाचार लेखन करते हुए उसका ध्यान ज़रूर रखा जाना चाहिए।
रेडियो समाचार की संरचना अख़बारों या टी.वी. की तरह उलटा पिरामिड (इंवर्टेड पिरामिड) शैली पर आधारित होती है। चाहे आप किसी भी माध्यम के लिए समाचार लिख रहे हों, समाचार लेखन की सबसे प्रचलित, प्रभावी और लोकप्रिय शैली उलटा पिरामिड-शैली ही है। सभी तरह के जनसंचार माध्यमों में सबसे अधिक यानी 90 प्रतिशत ख़बरें या स्टोरीज़ इसी शैली में लिखी जाती है।
उलटा पिरामिड-शैली में समाचार के सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य को सबसे पहले लिखा जाता है और उसके बाद घटते हुए महत्त्वक्रम में अन्य तथ्यों या सूचनाओं को लिखा या बताया जाता है। इस शैली में किसी घटना/विचार/समस्या का ब्योरा कालानुक्रम के बजाए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य या सूचना से शुरू होता है। तात्पर्य यह कि इस शैली में, कहानी की तरह क्लाइमेक्स अंत में नहीं बल्कि ख़बर के बिलकुल शुरू में आ जाता है। उलटा पिरामिड शैली में कोई निष्कर्ष नहीं होता।
उलटा पिरामिड शैली के तहत समाचार को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है—इंटो, बॉडी और समापन। समाचार के इंट्रो या लीड को हिंदी में मुखड़ा भी कहते हैं। इसमें ख़बर के मूल तत्त्व को शुरू की दो या तीन पंक्तियों में बताया जाता है। यह ख़बर का सबसे अहम हिस्सा होता है। इसके बाद बॉडी में समाचार के विस्तृत ब्योरे को घटते हुए महत्त्वक्रम में लिखा जाता है। हालाँकि इस शैली में अलग से समापन जैसी कोई चीज़ नहीं होती और यहाँ तक कि प्रासंगिक तथ्य और सूचनाएँ दी जा सकती हैं, अगर ज़रूरी हो तो समय और जगह की कमी को देखते हुए आख़िरी कुछ लाइनों या पैराग्राफ़ को काटकर हटाया भी जा सकता है और उस स्थिति में ख़बर वहीं समाप्त हो जाती है।
रेडियो समाचार के एक इंट्रो पर ग़ौर कीजिए—उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले में एक बस दुर्घटना में आज बीस लोगों की मौत हो गई। मृतकों में पाँच महिलाएँ और तीन बच्चे शामिल हैं।
एक और उदाहरण देखिए—महाराष्ट्र में बाढ़ का संकट गहराता जा रहा है। राज्य में बाढ़ से मरनेवालों की संख्या बढ़कर चार सौ पैंसठ हो गई है।
रेडियो के लिए समाचार लेखन-बुनियादी बातें :-
रेडियो के लिए समाचार कॉपी तैयार करते हुए कुछ बुनियादी बातों का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है।
(क) साफ़-सुथरी और टाइप्ड कॉपी—रेडियो समाचार कानों के लिए यानी सुनने के लिए होते हैं, इसलिए उनके लेखन में इसका ध्यान रखना ज़रूरी हो जाता है। लेकिन एक महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं भूलना चाहिए कि सुने जाने से पहले समाचार वाचक या वाचिका उसे पढ़ते हैं और तब वह श्रोताओं तक पहुँचता है। इसलिए समाचार कॉपी ऐसे तैयार की जानी चाहिए कि उसे पढ़ने में वाचक/वाचिका को कोई दिक़्क़त नहीं हो। अगर समाचार कॉपी टाइप्ड और साफ़-सुथरी नहीं है तो उसे पढ़ने के दौरान वाचक/वाचिका के अटकने या ग़लत पढ़ने का ख़तरा रहता है और इससे श्रोताओं का ध्यान बँटता है या वे भ्रमित हो जाते हैं।
प्रसारण के लिए तैयार की जा रही समाचार कॉपी को कंप्यूटर पर ट्रिपल स्पेस में टाइप किया जाना चाहिए। कॉपी के दोनों ओर पर्याप्त हाशिया छोड़ा जाना चाहिए। एक लाइन में अधिकतम 12-13 शब्द होने चाहिए। पंक्ति के आख़िर में कोई शब्द विभाजित नहीं होना चाहिए और पृष्ठ के आख़िर में कोई लाइन अधूरी नहीं होनी चाहिए। प्रत्येक लाइन में कितने शब्द हैं, इस बारे में एक सुसंगतता होने से बुलेटिन के संपादक को यह तय करने में सुविधा होती है कि कुल शब्द संख्या के आधार पर कितनी ख़बरें लेनी हैं और किस ख़बर को कितना बड़ा लेना है। समाचार कॉपी में ऐसे जटिल और उच्चारण में कठिन शब्द, संक्षिप्ताक्षर (एब्रीवियेशंस), अंक आदि नहीं लिखने चाहिए जिन्हें पढ़ने में ज़ुबान लड़खड़ाने लगे।
अंकों को लिखने के मामले में ख़ास सावधानी रखनी चाहिए। जैसे एक से दस तक के अंकों को शब्दों में और 11 से 999 तक अंकों में लिखा जाना चाहिए। लेकिन 2837550 लिखने के बजाय अट्ठाइस लाख सैंतीस हज़ार पाँच सौ पचास लिखा जाना चाहिए अन्यथा वाचक/वाचिका को पढ़ने में बहुत मुश्किल होगी। इसे हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। इसी तरह अख़बारों में % और $ जैसे संकेत चिह्नों से काम चल जाता है लेकिन रेडियो में यह पूरी तरह वर्जित है यानी प्रतिशत और डॉलर लिखा जाना चाहिए। जहाँ भी संभव और उपयुक्त हो दशमलव को उसके नज़दीकी पूर्णांक में लिखना बेहतर होता है। इसी तरह 2837550 रुपए को रेडियो में लगभग अट्ठाइस लाख रुपए लिखना श्रोताओं को समझाने के लिहाज़ से बेहतर है। इस तरह की वित्तीय संख्याओं को उनके नज़दीकी पूर्णांक में लिखना चाहिए। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे खेलों के स्कोर को उसी तरह लिखना चाहिए। सचिन तेंदुलकर ने अगर 98 रन बनाए हैं तो उसे लगभग सौ रन नहीं लिख सकते। इसी तरह मुद्रास्फीति के आँकड़े नज़दीकी पूर्णांक में नहीं बल्कि दशमलव में ही लिखे जाने चाहिए।
वैसे रेडियो समाचार में अत्यधिक आँकड़ों और संख्या का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि श्रोताओं के लिए उन्हें समझ पाना काफ़ी कठिन होता है। आँकड़े तुलनात्मक हों तो बेहतर होता है। इस साल गेहूँ का उत्पादन पिछले वर्ष के 80 लाख टन से बढ़कर 86 लाख टन हो गया है की तुलना में इस साल गेहूँ का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में साढ़े सात फ़ीसदी बढ़कर 86 लाख टन पहुँच गया है ज़्यादा संप्रेषणीय है। रेडियो समाचार कभी भी संख्या से नहीं शुरू होना चाहिए। इसी तरह तिथियों को उसी तरह लिखना चाहिए जैसे हम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं—15 अगस्त उन्नीस सौ पचासी न कि—अगस्त 15, 1985।
(ख) डेडलाइन, संदर्भ और संक्षिप्ताक्षर का प्रयोग—रेडियो में अख़बारों की तरह डेडलाइन अलग से नहीं बल्कि समाचार से ही गुँथी होती है। हम इसकी चर्चा पहले कर चुके हैं। इसी तरह समाचार में समय संदर्भ का मसला भी महत्त्वपूर्ण है। अख़बार दिन में एक बार और वह भी सुबह (और कहीं शाम) छपकर आता है जबकि रेडियो पर चौबीसों घंटे समाचार चलते रहते हैं। श्रोता के लिए समय का फ़्रेम हमेशा आज होता है। इसलिए समाचार में आज, आज सुबह, आज दुूपहर, आज शाम, आज तड़के आदि का इस्तेमाल किया जाता है। इसी तरह... बैठक कल होगी या... कल हुई बैठक में... का प्रयोग किया जाता है। इसी सप्ताह, अगले सप्ताह, पिछले सप्ताह, इस महीने, अगले महीने, पिछले महीने, इस साल, पिछले साल, अगले साल, अगले बुधवार या पिछले शुक्रवार का इस्तेमाल करना चाहिए।
संक्षिप्ताक्षरों के इस्तेमाल में काफ़ी सावधानी बरतनी चाहिए। बेहतर तो यही होगा कि उनके प्रयोग से बचा जाए और अगर ज़रूरी हो तो समाचार के शुरू में पहले उसे पूरा दिया जाए, फिर संक्षिप्ताक्षर का प्रयोग किया जाए। संक्षिप्ताक्षरों के प्रयोग के दौरान यह देखा जाना चाहिए कि वह कितना लोकप्रिय है। जैसे डब्ल्यूटीओ, यूनिसेफ, सार्क, आईसीआईसीआई बैंक का इस्तेमाल सीधे भी किया जा सकता है।
टेलीविज़न :
जब हम टेलीविज़न लेखन की बात करते हैं तो यह साफ़ है कि कि इसमें दृश्यों की अहमियत सबसे ज़्यादा है। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि टेलीविज़न देखने और सुनने का माध्यम है और इसके लिए समाचार या आलेख (स्क्रिप्ट) लिखते समय इस बात पर खास ध्यान रखने की ज़रूरत पड़ती है कि आपके शब्द पर्दे पर दिखने वाले दृश्य के अनुकूल हों। अभी तक हमने प्रिंट और रेडियो माध्यम के लिए लेखन की शर्तों की चर्चा की लेकिन टेलीविज़न लेखन इन दोनों ही माध्यमों से काफ़ी अलग है। इसमें कम से कम शब्दों में ज़्यादा से ज़्यादा ख़बर बताने की कला का इस्तेमाल होता है।
इसलिए टी.वी. के लिए ख़बर लिखने की बुनियादी शर्त दृश्य के साथ लेखन है। दृश्य यानी कैमरे से लिए गए शॉट्स, जिनके आधार पर ख़बर बुनी जानी है। अगर शॉट्स आसमान के हैं तो हम आसमान की बात लिखेंगे, समंदर की नहीं। अगर कहीं आग लगी हुई है तो हम उसका ज़िक्र करेंगे पानी का नहीं। मान लें कि दिल्ली की किसी इमारत में आग लगने की ख़बर लिखनी है। अख़बार में आमतौर पर इस ख़बर का इंट्रो कुछ इस तरह का बन सकता है—दिल्ली के लाजपत नगर की एक दुकान में आज शाम आग लगने से दो लोग घायल हो गए और लाखों रुपए की संपत्ति जलकर राख हो गई। ये आग शॉर्ट सर्किट की वजह से लगी।
लेकिन टी.वी. में इस ख़बर की शुरुआत कुछ अलग होगी। दरअसल टेलीविज़न पर ख़बर दो तरह से पेश की जाती है। इसका शुरुआती हिस्सा, जिसमें मुख्य ख़बर होती है बग़ैर दृश्य के न्यूज़ रीडर या एंकर पढ़ता है। दूसरा हिस्सा वह होता है जहाँ से पर्दे पर एंकर की जगह ख़बर से संबंधित दृश्य दिखाए जाते हैं। इसलिए टेलीविज़न पर ख़बर दो हिस्सों में बँटी होती है। अगर ख़बरों के प्रस्तुतिकरण के तरीक़ों पर बात करें तो इसके भी कई तकनीकी पहलू हैं।
फ़िलहाल हम दिल्ली में आग की जिस ख़बर की चर्चा कर रहे हैं, उसे टी.वी. में पेश करने के तरीक़ों पर बात करते हैं। अख़बार में जिस तरह का इंट्रो हमने लिखा उसे टी.वी. में एक एंकर सूचना के तौर पर सबसे पहले पढ़ता है लेकिन अगर आग लगने के दृश्य हमारे पास हैं तो प्रारंभिक सूचना के बाद हम इसे इस तरह लिख सकते हैं—आग की ये लपटें सबसे पहले शाम चार बजे दिखीं, फिर तेज़ी से फैल गई...। निश्चय ही, इस ख़बर की इससे भी बेहतर शुरुआत हो सकती हैं लेकिन दृश्य के साथ बँधे होने की शर्त हर ख़बर पर लागू होगी।
दरअसल टेलीविज़न के लिए लेखन कई तरीक़े से होता है। चूँकि टेलीविज़न पर ख़बर पेश करने के तरीक़ों में लगातार बदलाव आ रहा है इसलिए इसे लिखने के तरीक़े भी लगातार बदल रहे हैं। इसे समझने के लिए ज़रूरी है कि हम टी.वी. पर दिखाई जाने वाली ख़बरों के प्रचलित ढाँचे या फ़ॉर्मेट को समझें।
टी.वी. ख़बरों के विभिन्न चरण :
किसी भी टी.वी. चैनल पर ख़बर देने का मूल आधार वही होता है जो प्रिंट या रेडियो पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रचलित है यानी सबसे पहले सूचना देना। टी.वी. में भी यह सूचनाएँ कई चरणों से होकर दर्शकों के पास पहुँचती हैं। ये चरण हैं—
• फ़्लैश या ब्रेकिंग न्यूज़
• ड्राई एंकर
• फ़ोन-इन
• एंकर-विजुअल
• एंकर-बाइट
• लाइव
• एंकर-पैकेज
फ़्लैश या ब्रेकिंग न्यूज़—सबसे पहले कोई बड़ी ख़बर फ़्लैश या ब्रेकिंग न्यूज के रूप में तत्काल दर्शकों तक पहुँचाई जाती है। इसमें कम से कम शब्दों में महज़ सूचना दी जाती है।
ड्राई एंकर—इसमें एंकर ख़बर के बारे में दर्शकों को सीधे-सीधे बताता है कि कहाँ, क्या, कब और कैसे हुआ। जब तक ख़बर के दृश्य नहीं आते एंकर, दर्शकों को रिपोर्टर से मिली जानकारियों के आधार पर सूचनाएँ पहुँचाता है।
फ़ोन-इन—इसके बाद ख़बर का विस्तार होता है और एंकर रिपोर्टर से फ़ोन पर बात करके सूचनाएँ दर्शकों तक पहुँचाता है। इसमें रिपोर्टर घटना वाली जगह पर मौजूद होता है और वहाँ से उसे जितनी ज़्यादा से ज़्यादा जानकारियाँ मिलती है वह दर्शकों को बताता है।
एंकर-विजुअल—जब घटना के दृश्य या विजुअल मिल जाते हैं तब उन दृश्यों के आधार पर ख़बर लिखी जाती है, जो एंकर पढ़ता है। इस ख़बर की शुरुआत भी प्रारंभिक सूचना से होती है और बाद में कुछ वाक्यों पर प्राप्त दृश्य दिखाए जाते हैं।
एंकर-बाइट—बाइट यानी कथन। टेलीविज़न पत्रकारिता में बाइट का काफ़ी महत्त्व है। टेलीविज़न में किसी भी ख़बर को पुष्ट करने के लिए इससे संबंधित बाइट दिखाई जाती है। किसी घटना की सूचना देने और उसके दृश्य दिखाने के साथ ही इस घटना के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों या संबंधित व्यक्तियों का कथन दिखा और सुनाकर ख़बर को प्रामाणिकता प्रदान की जाती है।
लाइव—लाइव यानी किसी ख़बर का घटनास्थल से सीधा प्रसारण। सभी टी.वी. चैनल कोशिश करते हैं कि किसी बड़ी घटना के दृश्य तत्काल दर्शकों तक सीधे पहुँचाए जा सकें। इसके लिए मौक़े पर मौजूद रिपोर्टर और कैमरामैन ओ. बी. वैन के ज़रिए घटना के बारे में सीधे दर्शकों को दिखाते और बताते हैं।
एंकर-पैकेज—पैकेज किसी भी ख़बर को संपूर्णता के साथ पेश करने का एक ज़रिया है। इसमें संबंधित घटना के दृश्य, इससे जुड़े लोगों की बाइट, ग्राफ़िक के ज़रिए ज़रूरी सूचनाएँ आदि होती हैं। टेलीविज़न लेखन इन तमाम रूपों को ध्यान में रखकर किया जाता है। जहाँ जैसी ज़रूरत होती है, वहाँ वैसे वाक्यों का इस्तेमाल होता है। शब्द का काम दृश्य को आगे ले जाना है ताकि वह दूसरे दृश्यों से जुड़ सके, उसमें निहित अर्थ को सामने लाना है ताकि ख़बर के सारे आशय खुल सकें।
अक्सर टी.वी. पर ख़बर लिखने की एक प्रचलित शैली दिखाई पड़ती है। पहला वाक्य दृश्य के वर्णन से शुरू होता है। जैसे—दिल्ली के रामलीला मैदान में हो रही ये सभा...। या फिर झील में छलाँग लगाते बच्चे...।
इस प्रचलित शैली में आसानी यह है कि बिना किसी कल्पनाशीलता के टी.वी. रिपोर्टिंग का बुनियादी अनुशासन, यानी दृश्य पर लेखन निभ जाता है, लेकिन इसमें शब्दों की भूमिका बेमानी हो जाती है। दर्शक जो अपनी आँख से देख रहा है उसे दुहराने का कोई फ़ायदा नहीं है। कोई कल्पनाशील रिपोर्टर इन्हीं दृश्यों को अपने शब्दों से ज़्यादा बड़े मायने दे सकता है। जैसे—दिल्ली के रामलीला मैदान में हो रही इस सभा में लोग लाए नहीं गए हैं, अपनी मर्ज़ी से आए हैं या फिर झील में छलाँग लगाते बच्चों के शॉट्स के साथ लिखा जा सकता है—इन दिनों तेज़ गर्मी से निजात पाने का एक तरीक़ा ये भी है...।
अगर वेलेंटाइन डे सेलिब्रेशन की ख़बर लेनी हो और एक-दूसरे को बधाई देने का कोई शॉट हो तो इसे कई तरीक़े से लिखा जा सकता है। इसे प्रचलित तरीक़े में इस प्रकार लिखा जा सकता है कि वेलेंटाइन डे पर एक-दूसरे को बधाई देते ये छात्र...। दूसरा तरीक़ा इसको किसी अर्थ से जोड़ने का है। यहीं से रिपोर्टर की दृष्टि सक्रिय होती है और उसकी अपनी समझ भी दिखाई देती है। वह लिख सकता है—भारतीय समाज में आए इस नए चलन से लोग ख़ुश भी हैं और दुखी भी...या फिर यह नई आधुनिकता परंपरावादियों को रास नहीं आ रही...।
लेकिन टी.वी. सिर्फ़ दृश्य और शब्द नहीं होता, बीच में होती हैं ध्वनियाँ। टी.वी. में दृश्य और शब्द-यानी विजुअल और वॉयस ओवर (वीओ) के साथ दो तरह की आवाज़ें और होती हैं। एक तो वे कथन या बाइट जो ख़बर बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं और दूसरी वे प्राकृतिक आवाज़ें जो दृश्य के साथ-साथ चली आती हैं—यानी चिड़ियों का चहचहाना या फिर गाड़ियों के गुज़रने की आवाज़ या फिर किसी कारख़ाने में किसी मशीन के चलने की ध्वनि।
टी.वी. के लिए ख़बर लिखते हुए इन दोनों तरह की आवाज़ों का ध्यान रखना ज़रूरी है। पहली तरह की आवाज़ यानी कथन या बाइट का तो ख़ैर ध्यान रखा ही जाता है। अक्सर टी. वी. की ख़बर बाइट्स के आसपास ही बुनी जाती है। लेकिन यह काम पर्याप्त सावधानी से किया जाना चाहिए। कथनों से ख़बर तो बनती ही है, टी.वी. के लिए उसका फ़ॉर्म भी बनता है। बाइट सिर्फ़ किसी का बयान भर नहीं होते जिन्हें ख़बर के बीच उसकी पुष्टिभर के लिए डाल दिया जाता है। वह दो वॉयस ओवर या दृश्यों का अंतराल भरने के लिए पुल का भी काम करता है।
लेकिन टी.वी. में सिर्फ़ बाइट या वॉयस ओवर नहीं होते, और भी ध्वनियाँ होती हैं। उन ध्वनियों से भी ख़बर बनती है या उसका मिज़ाज बनता है। इसलिए किसी ख़बर का वॉयस ओवर लिखते हुए उसमें शॉट्स के मुताबिक़ ध्वनियों के लिए गुंजाइश छोड़ देनी चाहिए। टी.वी. में ऐसी ध्वनियों को नेट या नेट साउंड यानी प्राकृतिक आवाज़ें कहते हैं यानी वो आवाज़ें जो शूट करते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद चली आती हैं। जैसे रिपोर्टर किसी आंदोलन की ख़बर ला रहा हो जिसमें ख़ूब नारे लगे हों। वह अगर सिर्फ़ इतना बताकर निकल जाता है कि उसमें कई नारे लगे और उसके बाद किसी नेता की बाइट का इस्तेमाल कर लेता है तो यह अच्छी ख़बर का नमूना नहीं कहलाएगा। उसे वे नारे लगते हुए दिखाना होगा और इसकी गुंजाइश अपने वीओ में छोड़नी होगी।
ध्वनियों के साथ-साथ ऐसे दृश्यों के अंतराल भी ख़बर में उपयोगी होते हैं। जैसे किसी क्रिकेट मैच की ख़बर में वॉयस ओवर ख़त्म होने के बाद भी कुछ देर तक मैदान में शॉट्स चलते रहें तो दर्शक को अच्छा लगता है। यानी ऐसी ख़बरें लिखते हुए भाषा में बहुत सन्न की ज़रूरत होती है। रिपोर्टर सारी बातें ख़ुद बता देना चाहते हैं, जबकि ज़्यादा बेहतर ये होता है कि दृश्य और ध्वनियाँ भी बोलें। छोटे-छोटे वाक्यों और सुगठित संपादन से टी.वी. की अच्छी ख़बर खिलकर आती है।
रेडियो और टेलीविजन समाचार की भाषा और शैली
दरअसल, किसी भी तरह के लेखन का कोई फ़ार्मूला नहीं हो सकता—रेडियो और टी.वी. पत्रकारिता का भी नहीं। प्रयोगशीलता भाषा को भी समृद्ध करती है और माध्यम को भी। रेडियो और टी.वी. आम आदमी के माध्यम हैं। भारत जैसे विकासशील देश में उसके श्रोताओं और दर्शकों में पढ़े-लिखे लोगों से निरक्षर तक और मध्यम वर्ग से लेकर किसान मज़दूर तक सभी हैं। इन सभी लोगों की सूचना की ज़रूरतें पूरी करना ही रेडियो और टी.वी. का उद्देश्य है। ज़ाहिर है कि लोगों तक पहुँचने का माध्यम भाषा है और इसलिए भाषा ऐसी होनी चाहिए कि वह सभी को आसानी से समझ में आ सके लेकिन साथ ही भाषा के स्तर और गरिमा के साथ कोई समझौता भी न करना पड़े।
इस कारण हमारा यह दायित्व है कि हम आपसी बोलचाल में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल रेडियो और टी.वी. समाचार में भी करें। सरल भाषा लिखने का सबसे बेहतर उपाय यह है कि वाक्य छोटे, सीधे और स्पष्ट लिखे जाएँ। असल में, जब आप ख़ुद किसी चीज़ को ठीक से समझ नहीं पाते तो उसे जटिल तरीक़े से लिखते हैं। इसलिए आप जब भी कोई ख़बर लिख रहे हों तो पहले उसकी प्रमुख बातों को ठीक से समझने की कोशिश कीजिए और उसके बाद सोचिए कि अगर आपको यह ख़बर अपने माता-पिता, छोटी बहन और सहपाठी को बतानी होती तो कैसे बताते?
रेडियो और टी.वी. में आप कितनी सरल, संप्रेषणीय और प्रभावी भाषा लिख रहे हैं, यह जाँचने का एक बेहतर तरीक़ा यह है कि आप समाचार लिखने के बाद उसे बोल बोलकर पढ़ें। इस प्रक्रिया में आपको स्वयं यह अहसास हो जाएगा कि भाषा में कितना प्रवाह है, उसे पढ़ने में समाचार वाचक/वाचिका या एंकर को कोई दिक़्क़त तो नहीं होगी, या उसे सभी लोग आसानी से समझ तो जाएँगे?
रेडियो और टी.वी. समाचार में भाषा और शैली के स्तर पर काफ़ी सावधानी बरतनी पड़ती है। ऐसे कई शब्द हैं जिनका अख़बारों में धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है लेकिन रेडियो और टी.वी. में उनके प्रयोग से बचा जाता है। जैसे निम्नलिखित, उपरोक्त, अधोहस्ताक्षरित और क्रमांक आदि शब्दों का प्रयोग इन माध्यमों में बिलकुल मना है। इसी तरह 'द्वारा' शब्द के इस्तेमाल से भी बचने की कोशिश की जाती है क्योंकि इसका प्रयोग कई बार बहुत भ्रामक अर्थ देने लगता है। उदाहरण के लिए इस वाक्य पर ग़ौर कीजिए—पुलिस द्वारा चोरी करते हुए दो व्यक्तियों को पकड़ लिया गया। इसके बजाय पुलिस ने दो व्यक्तियों को चोरी करते हुए पकड़ लिया। ज़्यादा स्पष्ट है।
इसी तरह तथा, एवं, अथवा, व, किंतु, परंतु, उनकी जगह और, या, लेकिन आदि शब्दों का यथा आदि शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए और इस्तेमाल करना चाहिए। साफ़-सुथरी और सरल भाषा लिखने के लिए ग़ैरज़रूरी विशेषणों, सामासिक और तत्सम शब्दों, अतिजित उपमाओं आदि से बचना चाहिए। इनसे भाषा कई बार बोझिल होने लगती है। मुहावरों के इस्तेमाल से भाषा आकर्षक और प्रभावी बनती है। इसलिए उनका प्रयोग होना चाहिए। लेकिन मुहावरों का इस्तेमाल स्वाभाविक और जहाँ ज़रूरी हो, वहीं होना चाहिए अन्यथा वे भाषा के स्वाभाविक प्रवाह को बाधित करते हैं।
भाषा को साफ़ रखने के कुछ जाने-पहचाने नुस्ख़े हैं। एक तो वाक्य छोटे-छोटे हों। एक वाक्य में एक ही बात कहने का धीरज हो। वाक्यों में तारतम्य ऐसा हो कि कुछ टूटता या छूटता हुआ न लगे। दूसरी बात यह कि शब्द प्रचलित हों और उनका उच्चारण सहजता से किया जा सके। क्रय-विक्रय की जगह ख़रीद-बिक्री, स्थानांतरण की जगह तबादला और पंक्ति की जगह क़तार टी.वी. में सहज माने जाते हैं, यानी वैसे शब्द जो बोलचाल के क़रीब हों, उनसे विद्वता न झलके, बल्कि अपना सहज पड़ोस दिखाई पड़े।
इंटरनेट :
इंटरनेट पत्रकारिता, ऑनलाइन पत्रकारिता, साइबर पत्रकारिता या वेब पत्रकारिता। इसे आप कुछ भी कह लीजिए। आप इसे चाहे जो कहें, नई पीढ़ी के लिए अब यह एक आदत-सी बनती जा रही है। जो लोग इंटरनेट के अभ्यस्त हैं, या जिन्हें चौबीसों घंटे इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है, उन्हें अब काग़ज़ पर छपे हुए अख़बार उतने ताज़े और मनभावन नहीं लगते। उन्हें हर घंटे-दो घंटे में ख़ुद को अपडेट करने की लत लगती जा रही है!
भारत में कंप्यूटर साक्षरता की दर बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। पर्सनल कंप्यूटर इस्तेमाल करनेवालों की संख्या में भी लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। हर साल क़रीब 50-55 फ़ीसदी की रफ़्तार से इंटरनेट कनेक्शनों की संख्या बढ़ रही है। उसकी वजह यह है कि इंटरनेट पर आप एक ही झटके में झुमरीतलैया से लेकर होनोलूलू तक की ख़बरें पढ़ सकते हैं। दुनियाभर की चर्चाओं-परिचर्चाओं में शरीक हो सकते हैं और अख़बारों की पुरानी फ़ाइलें खंगाल सकते हैं।
सबसे पहले यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि इंटरनेट सिर्फ़ एक टूल यानी औज़ार है, जिसे आप सूचना, मनोरंजन, ज्ञान और व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक संवादों के आदान-प्रदान के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन इंटरनेट जहाँ सूचनाओं के आदान-प्रदान का बेहतरीन औज़ार है, वहीं वह अश्लीलता, दुष्प्रचार और गंदगी फैलाने का भी ज़रिया है। इंटरनेट पर पत्रकारिता के भी दो रूप हैं। पहला तो इंटरनेट का एक माध्यम या औज़ार के तौर पर इस्तेमाल, यानी ख़बरों के संप्रेषण के लिए इंटरनेट का उपयोग। दूसरा, रिपोर्टर अपनी ख़बर को एक जगह से दूसरी जगह तक ईमेल के ज़रिए भेजने और समाचारों के संकलन, ख़बरों के सत्यापन और पुष्टिकरण में भी इसका इस्तेमाल करता है। रिसर्च या शोध का काम तो इंटरनेट ने बेहद आसान कर दिया है। टेलीविज़न या अन्य समाचार माध्यमों में ख़बरों के बैकग्राउंडर तैयार करने या किसी ख़बर की पृष्ठभूमि तत्काल जानने के लिए जहाँ पहले ढेर सारी अख़बारी कतरनों की फ़ाइलों को ढूँढ़ना पड़ता था, वहीं आज चंद मिनटों में इंटरनेट विश्वव्यापी संजाल के भीतर से कोई भी बैकग्राउंडर या पृष्ठभूमि खोजी जा सकती है। एक ज़माना था जब टेलीप्रिंटर पर एक मिनट में 80 शब्द एक जगह से दूसरी जगह भेजे जा सकते थे, आज स्थिति यह है कि एक सेकेंड में 56 किलोबाइट यानी लगभग 70 हज़ार शब्द भेजे जा सकते हैं।
इंटरनेट पत्रकारिता :
एक माध्यम के तौर पर यह तो हुआ इंटरनेट का इस्तेमाल जिसके फ़ायदों से शायद ही कोई इंकार करे। लेकिन इसे इंटरनेट पत्रकारिता नहीं कहा जा सकता है। इंटरनेट पर अख़बारों का प्रकाशन या ख़बरों का आदान-प्रदान ही वास्तव में इंटरनेट पत्रकारिता है। इंटरनेट पर यदि हम, किसी भी रूप में ख़बरों, लेखों, चर्चा-परिचर्चाओं, बहसों, फ़ीचर, झलकियों, डायरियों के ज़रिए अपने समय की धड़कनों को महसूस करने और दर्ज़ करने का काम करते हैं तो वही इंटरनेट पत्रकारिता है। आज तमाम प्रमुख अख़बार पूरे के पूरे इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। कई प्रकाशन समूहों ने और कई निजी कंपनियों ने ख़ुद को इंटरनेट पत्रकारिता से जोड़ लिया है। चूँकि यह एक अलग माध्यम है, इसलिए इस पर पत्रकारिता का तरीक़ा भी थोड़ा-सा अलग है।
इंटरनेट पत्रकारिता का इतिहास
आइए अब एक नज़र विश्व स्तर पर इंटरनेट पत्रकारिता के स्वरूप और विकास पर डालते हैं। विश्व स्तर पर इस समय इंटरनेट पत्रकारिता का तीसरा दौर चल रहा है। पहला दौर था 1982 से 1992 तक जबकि दूसरा दौर चला 1993 से 2001 तक। तीसरे दौर की इंटरनेट पत्रकारिता 2002 से अब तक की है। पहले चरण में इंटरनेट ख़ुद प्रयोग के धरातल पर था, इसलिए बड़े प्रकाशन समूह यह देख रहे थे कि कैसे अख़बारों की उपस्थिति सुपर इंफॉर्मेशन-हाईवे पर दर्ज़ हो।
तब एओएल यानी अमेरिका ऑनलाइन जैसी कुछ चर्चित कंपनियाँ सामने आई। लेकिन कुल मिलाकर यह प्रयोगों का दौर था। सच्चे अर्थों में इंटरनेट पत्रकारिता की शुरुआत 1983 से 2002 के बीच हुई। इस दौर में तकनीक के स्तर पर भी इंटरनेट का ज़बरदस्त विकास हुआ। नई वेब भाषा एचटीएमएल (हाइपर टेक्स्ट मार्क्सअप लैंग्वेज) आई, इंटरनेट ईमेल आया, इंटरनेट एक्सप्लोरर और नेटस्केप नाम के ब्राउजर (वह औज़ार जिसके जरिये विश्वव्यापी जाल में गोते लगाए जा सकते हैं) आए। इन्होंने इंटरनेट को और भी सुविधासंपन्न और तेज़ रफ़्तार बना दिया। इस दौर में लगभग सभी बड़े अख़बार और टेलीविज़न समूह विश्व जाल में आए। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’, ‘सीएनएन’, ‘बीबीसी’ सहित तमाम बड़े घरानों ने अपने प्रकाशनों, प्रसारणों के इंटरनेट संस्करण निकाले। दुनियाभर में इस बीच इंटरनेट का काफ़ी विस्तार हुआ। न्यू मीडिया के नाम पर डॉटकॉम कंपनियों का उफ़ान आया। जिसे देखो, वही इंटरनेट और डॉटकॉम की बात करने लगा। लोग रातोंरात अमीर बनने का ख़्वाब देखने लगे। इसलिए जितनी तेज़ी के साथ यह उफ़ान आया था, उतनी ही तेज़ी के साथ इसका बुलबुला फूटा भी। सन् 1996 से 2002 के बीच अकेले अमेरिका में ही पाँच लाख लोगों को डॉटकॉम की नौकरियों से हाथ धोना पड़ा। विषय सामग्री और पर्याप्त आर्थिक आधार के अभाव में ज़्यादातर डॉटकॉम कंपनियाँ बंद हो गई। लेकिन यह भी सही है कि बड़े प्रकाशन समूहों ने इस दौर में भी ख़ुद को किसी तरह जमाए रखा। चूँकि जनसंचार के क्षेत्र में सक्रिय लोग यह जानते थे कि और चाहे जो हो, सूचनाओं के आदान-प्रदान के माध्यम के तौर पर इंटरनेट का कोई जवाब नहीं। इसलिए इसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी। इसलिए कहा जा रहा है कि इंटरनेट पत्रकारिता का 2002 से शुरू हुआ तीसरा दौर सच्चे अर्थों में टिकाऊ हो सकता है।
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता
भारत में इंटरनेट पत्रकारिता का अभी दूसरा दौर चल रहा है। भारत के लिए पहला दौर 1993 से शुरू माना जा सकता है जबकि दूसरा दौर सन् 2003 से शुरू हुआ है। पहले दौर में हमारे यहाँ भी प्रयोग हुए। डॉटकॉम का तूफ़ान आया और बुलबुले की तरह फूट गया। अंततः वही टिके रह पाए जो मीडिया उद्योग में पहले से ही टिके हुए थे। आज पत्रकारिता की दृष्टि से ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘हिंदू’, ‘ट्रिब्यून’, ‘स्टेट्समैन’, ‘पॉयनियर’, ‘एनडीटी. वी.’, ‘आईबीएन’, ‘जी न्यूज’, ‘आजतक’ और ‘आउटलुक’ की साइटें ही बेहतर हैं। ‘इंडिया टुडे’ जैसी कुछ साइटें भुगतान के बाद ही देखी जा सकती हैं। जो साइटें नियमित अपडेट होती हैं, उनमें ‘हिंदू’, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘आउटलुक’, ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘एनडीटी.वी.’, ‘आजतक’ और ‘जी न्यूज़’ प्रमुख हैं।
लेकिन भारत में सच्चे अर्थों में यदि कोई वेब पत्रकारिता कर रहा है तो वह ‘रीडिफ़ डॉटकॉम’, ‘इंडियाइंफोलाइन’ व ‘सीफी’ जैसी कुछ ही साइटें हैं। रीडिफ़ को भारत की पहली साइट कहा जा सकता है जो कुछ गंभीरता के साथ इंटरनेट पत्रकारिता कर रही है। वेब साइट पर विशुद्ध पत्रकारिता शुरू करने का श्रेय ‘तहलका डॉटकॉम’ को जाता है।
हिंदी नेट संसार
अब हिंदी की बात करें। हिंदी में नेट पत्रकारिता ‘वेब दुनिया’ के साथ शुरू हुई। इंदौर के नई दुनिया समूह से शुरू हुआ यह पोर्टल हिंदी का संपूर्ण पोर्टल है। इसके साथ ही हिंदी के अख़बारों ने भी विश्वजाल में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करानी शुरू की। ‘जागरण’, ‘अमर उजाला’, ‘नई दुनिया’, ‘हिंदुस्तान’, ‘भास्कर’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘प्रभात ख़बर’ व ‘राष्ट्रीय सहारा’ के वेब संस्करण शुरू हुए। ‘प्रभासाक्षी’ नाम से शुरू हुआ अख़बार, प्रिंट रूप में न होकर सिर्फ़ इंटरनेट पर ही उपलब्ध है। आज पत्रकारिता के लिहाज़ से हिंदी की सर्वश्रेष्ठ साइट बीबीसी की है। यही एक साइट है जो इंटरनेट के मानदंडों के हिसाब से चल रही है। वेब दुनिया ने शुरू में काफ़ी आशाएँ जगाई थीं, लेकिन धीरे-धीरे स्टाफ़ और साइट की अपडेटिंग में कटौती की जाने लगी जिससे पत्रकारिता की वह ताज़गी जाती रही जो शुरू में नज़र आती थी।
हिंदी वेबजगत का एक अच्छा पहलू यह भी है कि इसमें कई साहित्यिक पत्रिकाएँ चल रही हैं। अनुभूति, अभिव्यक्ति, हिंदी नेस्ट, सराय आदि अच्छा काम कर रहे हैं। यही नहीं, सरकार के तमाम मंत्रालय, विभाग, सार्वजनिक उपक्रम और बैंकों ने भी अपने हिंदी अनुभाग शुरू किए हैं जो भले ही आज तकनीकी उपेक्षा के शिकार हैं लेकिन उनका डाटा बेस तो तैयार हो ही रहा है। अंततः ये सब मिलकर हिंदी की ऑनलाइन पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
कुल मिलाकर हिंदी की वेब पत्रकारिता अभी अपने शैशव काल में ही है। सबसे बड़ी समस्या हिंदी के फ़ॉट की है। अभी भी हमारे पास कोई एक ‘की-बोर्ड’ नहीं है। डायनमिक फ़ौंट की अनुपलब्धता के कारण हिंदी की ज़्यादातर साइटें खुलती ही नहीं हैं। अब माइक्रोसॉफ़्ट और वेबदुनिया ने यूनिकाड फ़ौंट बनाए हैं। लेकिन ये भी ख़ास लोकप्रिय नहीं हो पा रहे हैं। हिंदी जगत जब तक हिंदी के बेलगाम फ़ौंट संसार पर नियंत्रण नहीं लगाएगा और ‘की-बोर्ड’ का मानकीकरण नहीं करेगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 47)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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