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भौंरा तैं जानै कहा

bhaunra tain janai kaha

अक्षर अनन्य

अक्षर अनन्य

भौंरा तैं जानै कहा

अक्षर अनन्य

भौंरा तैं जानै कहा, निज कर कै रसरीत।

भ्रमत फिरत बहुत कलिन में, नहीं एक सों प्रीत॥

नहीं एक सों प्रीत, रीति तू सों कह जानै।

ससि चकोर को भाव, कहा कौवा पहिचानै॥

जहाँ एक सो नेह, तहाँ कैसो रस बौरा।

जहाँ बहु नाइक कान्ह, मुगद तैसो तू भौंरा॥

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रेमदीपिका, महात्मा अक्षरअनन्य कृत (पृष्ठ 16)
  • संपादक : राय बहादुर लाला सिताराम
  • रचनाकार : अक्षर अनन्य
  • प्रकाशन : हिंदुस्तानी एकेडेमी, यू.पी
  • संस्करण : 1878

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