इम कट्ठिहि मइ गमिउ पहिय! हेमंतरिउ।
सिसिरु पहुत्तउ धुत्तु णाहु दूरंतरिउ॥
उट्ठिय झंखड गयणि खर फरसु पवणि हय।
तिणि सूडिय झडि करि असेस तहि तरुय गय॥
छायफुल्लफलरहिय असेविय सउणियण।
तिमिरंतरिय दिसा य तुहिण धूइण भरिण॥
मग्ग भग्ग पंथियह ण पवसिहि हिम डरिण।
उज्जाणिहि ढंखरिय असोसिय कुसमवण॥
तरुणिहि कंत पमुक्किय णिय केलीहरिहि।
सिसिर भइण किउ जलणु सरणु अग्गीहरिहि॥
उवभुंजहि केलीरसु अब्भिंतर भुयण।
उज्जाणह दुम्मिहिवि ण कोरइ किवि सयण॥
मज्जमुक्क संठविउ विवह गंधक्करसु।
पिज्जइ अद्धावट्टउ रसियहि इक्खरसु॥
कुंदचउत्थि वरत्थणि पीणुन्नयथणिय।
णियसत्थरि पलुटंति केवि सीमंतिणिय॥
केवि दिंति रिउणाहह उपत्तिहि दिणिहि।
णियवल्लह कर केलि जंति सिज्जासणिहि॥
इत्थंतरि पुण पहिय! सिज्ज इक्कल्लियइ।
पिउ पेसिउ मण दूअउ पिम्म गहिल्लियइ॥
मइ जाणिउ पिउ आणि मज्झ संतोसिहइ।
णहु मुणिअउ खलु धिट्ठ सोवि महु मिल्हिहइ॥
पिउ णाविउ इहु दूउ गहिवि तत्थवि रहिउ।
सव्व हियउ महु दुक्खि भरिउ पूरिउ अहिउ॥
णट्ठ मूलु पिअसंगि लाहु इच्छंतियइ।
णिसुणि पहिय! जं पढिउ वत्थु विलवंतियइ॥
मइ घणु दुक्खु सहप्पि मुणवि मणु पेसिउ दुअउ।
णाहु ण आणिउ तेण सुपुणु तत्थव रय हूअउ॥
एम भमंतह सुन्नहियय जं रयणि विहणिय।
अणिरइ कीयइ कम्मि अवसु मणि पच्छुत्ताणिय॥
मइ दिन्नु हियउ णहु पत्तु पिउ हुई उवम इहु कहु कवण।
सिंगत्थि गइय वाडव्वणी पिक्ख हराविय णिअसवण॥
पथिक! कष्टपूर्वक मैंने हेमंत ऋतु बिताई। शिशिर आ पहुँचा, किंतु धूर्त पति दूर ही रहा। आकाश में तेज़, कठोर पवन से प्रताड़ित बवंडर उठे, उनसे वृक्षों के सभी पत्ते झड़कर टूट गए। छाया, फूल और फल से रहित वृक्ष पक्षियों के रहने योग्य नहीं रहे। कोहरे और धूम्रभार से दिशाएँ अंधकार से ढँक गईं। पथिकों के रास्ते बंद हो गए, वे शीत के डर से यात्रा नहीं करते। उद्यानों में एकाध हरा कुसुमवन भी झाड़-झंखाड़ हो गया। अपने-अपने कंतों को शयनकक्षों में छोड़कर तरुणियों ने शीत के भय से अग्निगृह में अग्नि की शरण ली। केलि रस का उपभोग घर में उपवरक में किया जाने लगा। बाग़ में पेड़ों के नीचे कोई शयन नहीं करता। लोगों ने मद्य छोड़ दिया और विविध गंधों से सुगंधित रस का सेवन शुरू किया। रसिक जन आधे पेरे हुए ईख का रस पीते हैं। वर-आकांक्षी पुष्ट और उन्नत स्तनों वाली कोई-कोई युवतियाँ चतुर्थी को अपने बिछौनों पर लोटती हैं। कोई ऋतुनाथ के जन्मदिवस पर दान देती हैं, अपने प्रिय के साथ केलि करने शय्यासन पर जाती हैं। इसी समय शय्या पर अकेली प्रेममुग्धा मैंने प्रिय के पास अपने मन को दूत बनाकर भेजा। मैंने जाना था कि वह प्रिय को लाकर मुझे संतोष देगा। यह नहीं जाना था कि वह दुष्ट भी मुझे छोड़ देगा। प्रिय नहीं आया, उल्टे वह उस दूत को भी वहीं पकड़े रहा। मेरा संपूर्ण हृदय दुख-भार से और अधिक पूरित हो गया। प्रिय के साहचर्य लाभ की इच्छा करती हुई मेरा मूल भी नष्ट हो गया। पथिक! विलपती हुई मैंने जो छंद पढ़ा उसे सुनो। मैंने घना दुख सहकर विचारपूर्वक मनोदूत भेजा। प्रिय नहीं आया और वह मनोदूत भी वहीं रम गया। इस प्रकार भटकती हुई शून्यहृदया मैंने रात बिताई। मैंने यह अनिरूपित कार्य किया, इसके लिए मन में अवश्य पछताई। मैंने हृदय दिया किंतु प्रिय नहीं आया। कहो, यह कैसी उपमा हुई। खच्चरी सींगों के लिए गई और देखो! कान भी गँवा आई।
- पुस्तक : संदेश रासक (पृष्ठ 188)
- रचनाकार : अब्दुल रहमान
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1991
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