भारत-भारती / वर्तमान खंड / साहित्य
saahityaa
उस सांप्रतिक साहित्य पर भी ध्यान देना चाहिए,
उसकी अवस्था भी हमें कुछ जान लेना चाहिए।
मृत हो कि जीवित, जाति का साहित्य जीवन-चित्र है,
वह भ्रष्ट है तो सिद्ध फिर वह जाति भी अपवित्र है॥
जिस जाति का साहित्य था स्वर्गीय भावों से भरा—
करने लगा अब बस विषय के विष-विटप को वह हरा!
श्रुति, शास्त्र, सूत्र पुराण, रामायण, महाभारत हटे,
वे नायिकाभेदादि उनके स्थान में हैं आ डटे!!
हम तो हुए ही पतित पर दुर्भाव जो भरते गए—
सुकुमार भावी सृष्टि को भी वे पतित करते गए!
हा! उच्च भावों को वही क्रम आज भी है खो रहा,
अश्लील ग्रंथों से हमारा शील चौपट हो रहा!
अब सिद्ध हिंदी ही यहाँ की राष्ट्र-भाषा हो रही,
पर है वही सबसे अधिक साहित्य के हित रो रही!
रीते पड़े अब तक अहो! उसके अखिल भांडार हैं,
तुलसी तथा सूरादि के कुछ रत्न ही आधार हैं!!
कविता
उद्देश कविता का प्रमुख शृंगार रस ही हो गया,
उन्मत्त होकर मन हमारा अब उसी में खो गया!
कवि-कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया देखो जहाँ,
वह वीर रस भी समर-समर में हो गया परिणत यहाँ॥
सोचो, हमारे अर्थ है यह बात कैसे शोक की—
श्रीकृष्ण की हम आड़ लेकर हानि करते लोक की।
भगवान को साक्षी बना कर यह अनंगोपासना!
है धन्य ऐसे कविवरों को, धन्य उनकी वासना!!
उपन्यास
है और औपन्यासिकों का एक नूतन दल यहाँ,
फैला रहा है जो निरंतर और भी हलचल यहाँ!
दौरात्म्य ही अब लोक-रुचि पर हो रहा है सब कहीं,
हो स्वार्थ! तेरी जय, अरे, तू क्या करा सकता नहीं?
वे रुचि-विघातक ग्रंथ ज्यों ही सैर करने की छुए,
स्वीया हुईं कुलटा बहुत, अनुकूल बहुधा शठ हुए!
ये भाव हम गिरते हुओं पर और पत्थर-से गिरे,
दब कर हृदय जिनसे हमारे हो गए जर्जर निरे!!
जो उपन्यास यहाँ सुशिक्षाप्रद कह कर बिक रहे,
उनमें अधिक अविचार की ही नींव पर हैं टिक रहे।
उनके कु-पात्रों में नरक की आग ऐसी जागती,
अपनी सुरुचि भी पाठकों की दूर जिससे भागती!
साद्यंत उनमें असंभवता घन-घटा सी छा रही,
दुर्भाव की दुर्गंधि उनसे अंत तक है आ रही।
आई कहानी भी न कहनी और हम इतना बके,
'जीवन प्रभात' न 'चंद्रशेखर' एक भी हम लिख सके!
लिक्खाड़ ऐसे ही यहाँ साहित्य-रत्न कहा रहे,
वे वीर वैतरणी नदी का हैं प्रवाह बहा रहे।
वे हैं नरक के दूत किंवा सूत हैं कलिराज के!
वे मित्ररूपी शत्रु ही हैं देश और समाज के॥
क्या मुँह दिखावेंगे भला परलोक में वे ही कहें?
जो कुछ नहीं आता उन्हें तो मौन ही फिर वे रहें!
पर मौन वे कैसे रहें, निरुपाय क्या भूखों मरें?
मर जाए क्यों न समाज सारा, पाकिटें उनकी भरें!!
पत्र
हैं पत्र भी प्रायः परस्पर द्वेष-भाव न छोड़ते,
दलबंदियाँ करते हुए जी के फफोले फोड़ते।
बीड़ा लिए जो देश-हित का पथ हमें दिखला रहे—
हठ, पक्षपात तथा हमें कुत्सा वही सिखला रहे!
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 120)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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