राम राज बैठे त्रैलोका।
हर्षित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई।
राम प्रताप बिषमता खोई॥
वरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद-पथ लोक।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं, नहिं भय रोग न सोक॥
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम राज नहिं काहुहिं व्यापा॥
सबु नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
चारिउ चरन धर्म जग माहीं।
पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं॥
रामभगति रत नर अरु नारी।
सकल परम गति के अधिकारी॥
श्रीराम के राजगद्दी पर बैठते ही राजकार्य की व्यवस्था को अपने हाथों में लेते ही, तीनों लोक—स्वर्ग, मर्त्य, और पाताल अत्यंत प्रसन्न हुए और उनके सब दु:ख दूर हो गए। राम के प्रताप से सब के मनों के भेद-भाव या कुटिलता नष्ट हो गई, अर्थात् कोई किसी से वैर नहीं करता था।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास इन चारों आश्रमों के लोग अपने-अपने कर्तव्य का भली-भाँति पालन करते थे और सब लोग वेद के बताए हुए मार्ग पर चलते थे। इसलिए सदा सुख पाते थे। उन्हें कभी कोई रोग, शोक या भय नहीं सताता था।
राम के राज्य में दैहिक—ज्वर आदि व्याधियाँ, दैविक—अकाल आदि और भौतिक—सिंह आदि पशुओं से किसी प्रकार का दु:ख नहीं होता था। सब लोग आपस में बड़े प्रेम से रहते थे और वैदिक मर्यादा का पालन करते हुए अपने-अपने धर्म-कर्म का आचरण करते थे।
राम के राज्य काल में संसार में धर्म अपने चारों चरणों से पूर्ण हो रहा था। स्वप्न में भी वहाँ पाप के कहीं दर्शन न होते थे। सब स्त्री-पुरुष रामभक्ति में लीन थे इसीलिए सब परम गति अर्थात् मोक्ष के अधिकारी थे।
- पुस्तक : पुष्प-पराग (पृष्ठ 77)
- संपादक : टेकचंद शास्त्री
- रचनाकार : तुलसीदास
- प्रकाशन : भारती सदन, दिल्ली
- संस्करण : 1955
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