इंद्रावती (स्वप्न खंड कुँवर)
raajai gaDh nau kha.nD banaaya
राजै गढ़ नौ खंड बनाया। ऊँच गगन लग ताहि उठावा॥
पहिल खंड जगमग मनियारा। निस मों दीख चंद उजियारा॥
चौथे खंड दीप है भानू। ज्ञान मद किमि कहों बखांनू॥
मंदिर एक अहै तेहि ठाऊ। तीरथ मंदिर मदिर नांउ॥
तासों लोग बहुत फल पावैं। सत्तर सहस नए नित आवैं॥
मठ के ऊपर ठीक हीं, घड़ियाली घड़ियाल।
निस दिन बैठे साधैं, घड़ी मुहूरत काल॥
का बरनो सुख मंदिर ठाऊं। आठ सदन आठो कर नाऊं॥
तिन भीतर बइठइ जे कोई। ता कह भूख प्यास ना होई॥
सुंदर नारी रहँइ घनेरी। भई न कामिन काहु अकेरी॥
है आनंद नाम एक ज्ञानी। ताकर सब मंदिर दरबानी॥
बिछै एक अस डार पसारा। सब निकेत पर पहुँचे डारा॥
वह सुख बास महीप को, है उत्तम कइलास।
सुख जीवन ता में मिलै, पूजत मन की आस॥
बरनो आगमपूर की हाटा। भूलहि ननुष देखि सै बाटा॥
कतहुँ तमोलिय पान भुलाने। कहुँ पटवा पाटहिं अरुझाने॥
रूप कनक कहुँ गढ़इ सोनार। कहुँ लोहे की ताव लोहार॥
कहुँ जौहरिये कतहुँ चितेरा। कतहुँ कुँदेरा कतहुँ ठठेरा॥
सब भूले अपने जग धंधा। का डिठियारू का जो अंधा॥
सब तो अहैं बटाऊ, पै पाएँ सुख भोग।
आपुहिं कोइ न जानत, हैं पथिक हमलोग॥
पुनि बखान सुनु मन तारा को। बसुधा बीच सुधा जल ताको॥
जो मनताए संबर पीए। सुख जीवन पावै म जीए॥
आवैं नीर भरैं पनिहारी। सुंदर आगमपुर की नारी॥
औउर नदी नीर जस छीरू। मद अस भेद सगेवर नीरू॥
मधु अस मीठ जीउ सर पानी। यह बखान समझै नर ज्ञानी॥
जो मानुष अनुरागबल, अचवै चारों नीर।
निर्मल होइ सरीर तेहि, व्याध न रहै सरीर॥
पुनि बखान सुनु मत के चेरा। आगमपुर के जोगिन केरा॥
बैरागी सन्यासिय जोगी। साधू संजम तपिय वियोगी॥
कोउ ठाढ़ा है ध्यान लगाए। कोउ धरती पर सीस नवाएँ॥
कोए महि पर माथा धरि रहा। जोग लाग सुख भोग न चहा॥
बहुतन कहँ जग सों सुधि नाहीं। रीझि रहे करता उपराहीं॥
रसना एक न कहि सकों, आगमपुर की बात।
धरम धनी है राजा, सुखी छतीसौ जात॥
- पुस्तक : हिंदी के कवि और काव्य (पृष्ठ 82)
- संपादक : गणेशप्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : हिंदुस्तानी एकेडेमी, संयुक्त प्रांत, इलाहाबाद
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