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भारत-भारती / वर्तमान खंड / रईस

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मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

भारत-भारती / वर्तमान खंड / रईस

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    है दीन, पर क्या देश की ऐसी अवस्था भी नहीं—

    आवश्यकीय पदार्थ जो बनने लगे क्रम से यहीं?

    कल-कारखाने खोल दें ऐसे धनी भी हैं हमीं,

    पर कौन झगड़े में पड़े, हमको भला है क्या कमी॥

    तुम मर रहे हो तो मरो; तुमसे हमें क्या काम है?

    हमको किसी की क्या पड़ी है, नाम है, धन-धाम है।

    तुम कौन हो, जिनके लिए हमको यहाँ अवकाश हो;

    सुख भोगते हैं हम, हमें क्या जो किसी का नाश हो!

    राजा-रईसों की यहाँ है आज ऐसी ही दशा,

    अँधा बना देता अहो! करके बधिर मद का नशा।

    बस भोग और विलास ही उनके निकट सब सार है,

    संसार में है और जो कुछ वह भयंकर भार है!

    दो पैर जो पैदल चले जाता अमीर नहीं गिना,

    होती सैर प्रदर्शिनी की भी यहाँ वाहन बिना।

    इँगलैंड का युवराज तो सीखे कुली का काम भी,

    पर काम क्या,आता नहीं लिखना यहाँ निज नाम भी!

    हो आध सैर कबाब मुझको, एक सेर शराब हो,

    नुरेजहाँ की सल्तनत है, ख़ूब हो कि ख़राब हो।”

    कहना मुगल सम्राट का यह ठीक है अब भी यहाँ,

    राजा-रईसों को प्रजा की है भला परवा कहाँ?

    जातीयता क्या वस्तु है, निज देश कहते हैं किसे;

    क्या अर्थ आत्म-त्याग का, वे जानते हैं क्या इसे?

    सुख-दु:ख जो कुछ है यहीं है, धर्म-कर्म अलीक है;

    खाओ-पिओ, मोजें करो, खेलो-हँसो, सो ठीक है!

    क्या सीख कर लिखना उन्हें, बनना मुहरिर है कहीं,

    पंडित पढ़ें, पढ़ कर कहीं उनको कथा कहनी नहीं।

    कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं काटते अक्षर उन्हें,

    है प्रेम उपवर के सदृश अपनी अविधा पर उन्हें!

    हैं शत्रु यद्यपि सिद्ध वे श्रीमान विद्या के सदा,

    पर कौन गुण उनमें नहीं जिनके यहाँ है संपदा?

    हा सम्पदे! सत्ता तुम्हारी है चराचरगामिनी,

    संसार में सारे गुणों की बस तुम्हीं हो स्वामिनी!

    ऐसा नहीं कि रईस अपने हैं नहीं कुछ जानते,

    वे कुछ जाने किंतु ये दो तत्त्व हैं पहचानते—

    त्रुटि कौन-सी उनकी सभा में है सजावट को पड़ी,

    है 'जानकीबाई' कि 'गौहरजान' गाने में बड़ी!

    दुर्विध प्रजा का द्रव्य हर कर फूँकते हैं व्यर्थ वे,

    सत्कार्य करने के लिए हैं सर्वथा असमर्थ वे!

    चाहे अपव्यय में उड़ें लाखों-करोड़ों भी अभी,

    पर देश-हित में वे देंगे एक कौड़ी भी कभी॥

    दुर्भिक्ष आदिक दुःख से यदि देश जाता है मरा,

    तो हैं प्रसन्न कि धाम उनका अन्न-धन से है भरा।

    दुर्भाग्य से यदि देश-भाई आपदा में फँस रहे—

    तो नाच-मुजरे में विराजे आप सुख से हँस रहें॥

    उनकी सभा 'इंद्रसभा' है इंद्र उनको लेख लो,

    वह पूर्ण परियों का अखाड़ा भाग्य हो तो देख लो!

    विख्यात बोतल की दवा क्या है अमृत से कम कभी!

    लेखक अधम कैसे लिखे उस स्वर्ग का वर्णन सभी॥

    मन हाथ में उनका नहीं, वे इन्द्रियों के दास हैं,

    कल-कंठियाँ गुंजारतीं उनके अतुल आवास हैं।

    वे नेत्र-बाणों से बिंध हैं, बाल-व्यालों से डसे,

    कैसे बचेंगे वे, विषय के बंधनों से हैं कसे॥

    हाँ, नाच, भोग-विलास-हित उनका भरा भांडार है,

    धिकधिक पुकार मृदंग भी देता उन्हें धिक्कार है!

    वे जागते हैं रात भर, दिन भर पड़े सोवें क्यों?

    है काम से ही काम उनको, दूसरे रोवे क्यों!

    बस भाँड़, भँडुवे, मसखरे उनकी सभा के रत्न हैं,

    करते रिझाने को उन्हें अच्छे बुरे सब यत्न हैं।

    धारा वचन को कौन जो उनके सुखार्थ वह उठें

    है कौन, उनकी बात पर जो 'हाँ हुजूर' कह उठे?

    देशी नरेशों को ज़रा भी ध्यान होता देश का,

    होते विषयाधीन यदि वे त्याग कर उद्देश का।

    तो दूसरा ही दृश्य होता आज भारतवर्ष का,

    दिन देखना पड़ता हमें क्यों आज यह अपकर्ष का?

    है अन्य धनियों की दशा भी ठीक ऐसी ही यहाँ,

    देखें दशा जो देश की अवकाश है उनको कहाँ?

    रखें मितव्यय तो बड़ों में व्यर्थ उनका नाम है,

    है इत्र मिल सकता जहाँ तक तेल का क्या काम है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 110)
    • रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
    • संस्करण : 1984

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