णवगिम्हागसि पहिय णाहु जं पवसियउ,
करवि करंजुलि सुह समूह मह णिवसियउ।
तणु अणुअंचि पलुट्टि विरहहवितवियतणि,
वलिवि पत्त णिय भुयणि विसंठुल विहलमणि॥
तह अणरइ रणरणउ असुहु असहंतियहँ,
दुस्सहु मलयसमीरणु मयणाकंतियहँ।
विसमझाल झलकंत जलंतिय तिव्वयर,
महियलि वणतिण दहण तवंतिंय तरणिकर॥
जम जीहह जिम चंचलु णहयलु लहलहइ,
तडतडयडि धर तिडइ ण तेयह भरु सहइ।
अइउन्हउ वोमयलि पहंजण जं वहइ,
तं झंखरु विरहिणिहि अंग फरिसिउ दहइ॥
पिउ चावइहि भणिज्जइ नवघणकंखरिहिँ,
सलिलनिवहु तुच्छच्छउ सरइ तरंगिणिहिँ।
फलहारिण उन्नमियउ अइसच्छयइ सुहि,
कुंजरसवणसरिच्छ पहल्लिर गंधवहि॥
तह पत्तिहि संसग्गिहि चूयाकंखिरिय,
कीरपंति परिवसयइ णिवड णिरंतरिय।
लइ पल्लव झुल्लंति समुट्ठिय करुण झुणि,
हउ किय णिस्साहार पहिय साहारवणि॥
हरियंदणु सिसिरत्थु उवरि जं लेवियउ,
तं सिहणह परितवइ अहिउ अहिसेवियउ।
ठविय विविह विलवंतिय अह तह हारलय,
कुसुममाल तिवि भुवइ झाल तउ हुइ सभय॥
णिसि सयणिह जं खित्तु सरीरह सुह जणणु,
विउणउ करइ उवेउ कमलदलसत्थरणु।
इम सिज्जह उठ्ठंत पडंत सलज्जिरिहि,
पढ़िउ वत्थु तह दोहउ पहिय सगग्गिरिहि॥
वियसाविय रवियरहि तविहि अरवियतवणि,
अमियमऔ विहु जणइ दाह विसजम्मगुणि।
दंसिउ दुसहु भुअंगि अंगि चंदणु तवइ,
खिवइ हारु हारुब्भवु कुसुम सरिच्छयइ॥
तुम घणसारिण चंदणिण अलिउ जि किवि चच्चंति।
पुण वि पिएण व उल्हवइ पियविरहग्गि निभंति॥
नव ग्रीष्म के आगमन पर प्रिय जब प्रवासी हुए तो मेरा सुख समूह भी प्रणाम करके चला गया। अपने शरीर को पीछे खींचकर विक्षिप्त, व्याकुल, विह्वल और विरहाग्नि से तपती हुई मैं लौटकर घर पहुँची। मैं वियोग का कष्ट सहन नहीं कर पाती थी। काम से पीड़ित मेरे लिए मलय पवन दुःसह हो गया। झलझलाती हुई भयानक ज्वाला से जलती हुई धरती के वन-तृण को जलाने वाली सुर्य-किरणें आग बरसाती थीं। क्षितिज यम की चंचल जिह्वा के समान लहलहाता था, धरा तेज़ के भार को न सह पाने के कारण तड़तड़ शब्द करके चिटक जाती थी। आकाश के तल में जो अत्यंत प्रचंड पवन बहता था वह विरहिणियों के झंखर अंगों को छूकर उन्हें जलाता था। नए मेघ की उत्कंठा से चातक ‘पिउ’ शब्द कहते हैं। नदियों का जलप्रवाह स्वच्छ और तुच्छ होकर बहता है। सहकार वन में आम्र वृक्ष फलभार से झुक गए और अधिक सुंदर लगने लगे। हाथियों के कान जैसे हिलते हुए पत्तों से सटे हुए सुरभित आमों की उत्कंठा से एकदम सटी हुई कीर पंक्ति बैठी हुई है। वे पल्लव के साथ झुलते हैं तो करुणध्वनि उठती है। पथिक! आम्र वन ने मुझे बेसहारा कर दिया। शीतलता के लिए जो चंदन का लेप किया तो सर्पों द्वारा सेवित होने के कारण वह स्तनों को तपाता रहा। विलाप करती हुई मैंने जब कुसुम माला धारण की तो वे भी ज्वाला उत्पन्न करने लगी, मैं डर गई। रात्रि में यदि शय्या पर शरीर सुख के लिए कमल-दल बिछा दिए गए तो वह दुगुना उद्वेग उत्पन्न करने लगे। इस प्रकार शय्या पर उठती पड़ती हुई मुझ सलज्जा ने गद्गद वाणी से यह वस्तु तथा दोधक पढ़ा। गर्मी के दिनों द्वारा विकसित अरविंद तपते हैं। विष के साथ जन्म लेने के कारण अमृतमय चंद्रमा भी दाह उत्पन्न करता है। दुःसह भुजंगों से वंशित होने के कारण चंदन अंगों को जलाता है। कुसुम-वाणों द्वारा कामदेव से पीड़ित लोगों के घाव में क्षारोद्भूत होने के कारण हार कष्ट पहुँचाता है। लोग जो देह को शीतलता के लिए चंदन से चर्चित करते हैं, वह व्यर्थ है। प्रिय की विरहाग्नि प्रिय द्वारा ही बुझती है, इसमें कोई भ्रांति नहीं।
- पुस्तक : संदेश रासक (पृष्ठ 173)
- रचनाकार : अब्दुल रहमान
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1991
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.