दुर्योधन जन्म वर्णन

duryaudhan janm varnan

छत्र कवि

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दुर्योधन जन्म वर्णन

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    तब कुंती मन दुखित ह्वै, चली पांडु नृप पास।
    गृह रक्षा को छत्र, राखे दासी दास॥
    पहुँची भूपति के निकट, नगर इंद्रपथ मांह।
    रहत सुचैने लोग सब, पांडु नृपति की छांह॥

    (चौपाई)

    जानी तरुणी आवति जबहीं।
    शोक भयो भूपति उर तबहीं॥
    निशि सून्यो नृप सेज सँवारी।
    इंदुबदनि त्रिय तहँ पगु धारी॥
    पतिको मन त्रिय लहै न सोई।
    बहु संदेह तासु उर होई॥
    तजि लज्जा यों बोली बैन।
    सुनहु प्राणपति बहु सुख दैन॥

    (कुन्त्युवाच)

    काहे रचत न हमसों मोह।
    यह लखि मो उर बाढ़त छोह॥
    तुमसों कहौं वचन तजिलाज।
    क्यों न रचत रति सुतके काज।
    सुखद वचन रानी यों सुने।
    दुख करि राजा मनमें गुने॥

    (दोहा)

    वज्र तुल्य उरमें लगी, तरुणी की यह बात।
    वरणी कानन की कथा, विकल देह अकुलात॥

    (पांडुउवाच)

    मृगनयनी के रूप, ऋषिनी ऋषि रति रचत में।
    ह्यो कह्यो यों भूप, द्विज के उर शर मध्यमें॥

    (दोहा)

    दयो शाप ऋषि यों कह्यो, ज्यों छांड़े में प्रान।
    त्यों तरुणी संयोग ते, मरण आपनो जान॥

    यों सुनि त्रिय लरखरि गिरी, तनु की नहीं सँभार।
    सुधि आई बोली तबै, यहि विधि बारंबार॥

    (दंडक छंद)

    किधौं हेम हार्यो अपमान कर्यो विप्रन को,
    किधौं धन धर्यो जाको ताही मैं न दिनो है।
    किधौं मैं बिछोये कहूँ तरुणी को प्राणपति,
    किधौं निंदनिगम कै गुरु को दोष लीनो है॥
    होम ,मैं बुझायो तृण चरत बिडारी धेनु,
    झूंठी साखि बोलिकै वचन महा दिनो है।
    कुंती के विलाप कहै दीनो ऋषि शाप जाको,
    अंग-अंग ताप ऐसो कौन पाप कीनो है॥

    (राजोवाच)

    होनहार सोई ह्वै रहै, नहीं सुमटी जाय।
    सावधान के वचन कहि, राखी त्रिय समुझाय॥

    यहि विधि बीते दिन घने, चिंता करी भुवार।
    किही विधि उपजै वंश गृह, होई सकल सुखसार॥

    (कुंत्युवाच)

    देव अकर्षण मंत्र मोहिं, दीने ऋषि दुर्वास।
    तुम आयुस लै जो भजौं, सो आवै मो पास॥

    धर्म्म जपन पति तब कह्यो, तरुणी सों सुख पाई।
    आज्ञा लै सुमिरन कियो, सो पहुँच्यो ढिग आई॥

    (धर्म्मउवाच)

    तेरे गर्भ होय सुत ऐसो।
    षोड़श कला चंद्र है जैसो॥
    धर्म्म धुरंधर धर्म्महि जानै।
    दत्त मत्त के सब मग ठानै॥
    भूमि भोग वै यक छत राज।
    सब विधि सारै जग के काज॥
    यह कहि धर्म्म गयो सुरलोक।
    गर्भ धर्यो त्रिय नाशे शोक॥
    दशवें मास पुत्र अवतरयो।
    मनो अतनु तनु भूमें धर्यो॥
    जै-जै शब्द आकाशहि भयो।
    धर्म्म जन्म महिमण्डल धर्यो॥

    (दोहा)

    निशिदिन नारी नर सबै, गावहिं मंगलाचार।
    होत बधाई छत्र कहि, नृपति पांडु दरबार॥
    तब बूझे नृप ज्योतिषी, कहिये लगन विचार।
    कौन मुहूरत सुत भयो, सो वर्णों विस्तार॥

    (ज्योतिषी उवाच)

    शुभ दिन शुभ घटिया भयो, भाग्यवंत बहु होय।
    एक छत्र महि भोगवै, अरि कहुँ बचै न कोय॥

    (दंडकछंद)

    सज्जन हुलासकार दुर्जन को नाशकार,
    मित्रन बिलासकार पृथ्वी को शृंगार है।
    मित्र को विश्वासकार पाटनि बिलासकार,
    भिक्षुक आवासकार भूमि भरतार है॥
    जग जाको आशकार शत्रु को विनाशकार,
    दिनन को यशकार रतन भँडार है।
    पुण्य को प्रकाशकार पाप को नाशकार,
    नृपता को भाषकार धर्म अवतार है॥

    (दोहा)

    उपज्यो पूरण भाग्य ते, तुम गृह सुत बलबंड।
    उन्नत सकल अधीन कै, देह अदंड निदंड॥
    यहि सुख दिन बीते किते, नृपति पांडु यक काल॥
    कही बोलि रानी तबै, देव अकर्षण बाल॥
    जाप्रसाद सुत दूसरो, प्रकट होय मम गेह।
    सौ आयुस अब उर धरौ, भूपति कह्यो सनेह॥
    जप्यो मंत्र बोल्यो पवन, अंत:पुर यक धाम।
    तहाँ भयो संयोग तब, गर्भ धर्यो हठि बाम॥

    (सुन्दरीछंद)

    पूरण मास भयो प्रकटयो सुत।
    कामस्वरूप सुशोभित संयुत॥
    अंध तिया यह बात सबै सुनि।
    व्यास भजे तिहि बार महामुनि॥
    आय गये ऋषिराज तहाँ तब।
    जो प्रिय बैन कहे तिन सों सब॥
    सो वर दै ऋषिराज महामति।
    सोई करौ प्रकटै सुत या गति॥

    (व्यासउवाच)

    शीशन धुनि सुनि बात यह, देखु पराय ऐन।
    आपु कियो सों पाइये, कहे व्यास यह बैन॥

    दीन्ही हर्षि अशीष तब, व्यास महा ऋषिराय।
    गंधारी को गर्भ तब, प्रकट भयो तहँ आय॥

    जहाँ शैल के शिखर पर, कुटी ऋषिन को धाम।
    कुंती लहि भीमहि गई, कीने अमित प्रणाम॥
    सन्मुख गाज्यो सिंह तहँ, भीमसेन तेहि काल।
    हुलसि गोदते तब गिर्यो, पाहनपै उत्ताल॥
    अरु हूंक्यो ज्यों जलद धुनि, सुनि हरि गयो पराय।
    सुनि गंधारी मूर्च्छि तब, गिरी धरणि अकुलाय॥
    थोड़े दिन को गर्भ ह्वै, मूचि गयो त्यहिं काल।
    पन्यो पिंड सो धरणि पर, अंग-अंग बेहाल॥
    भयो कुलाहल सदन में, भजे व्यास मुनिराय।
    हितकारी ता वंश के, तब हीं पहुँचे आय॥

    (चौपाई)

    बरणि सबै विधि दासी कही।
    सो सब सुनि मुनि हिरदै लही।
    करि शत अंश पिंड के धरै।
    प्राण सबनि में तब संचरै॥
    सो घट घृत भरि लये मँगाय।
    प्रति घट अंश पिंड सुख पाय॥
    राखे एक-एक गुणग्राम।
    धरे सु अंत:पुर यक धाम॥
    व्यास सिधाये तब ऋषिराव।
    करि गंधारी के चितचाव॥
    पूरण मास गये जब बीती।
    खोले घट आनंद समीती॥
    प्रथम जन्म दुर्योधन लयो।
    दूजे घट दुश्शासन भयो॥ 
    तीजे दूरध बहु सुकुमार।
    रूपवंत ज्यों सोवत मार॥

     (दोहा)

    आनंदभो धृतराष्ट्र गृह, जहाँ-तहँ मंगलचार।
    कंचन भूषण हेम नग, पावत मंगनहार॥
    सब पुर में आनंद भयो, मन भायो सब लेत।
    हरषि कै सकल विधि, सबै अशीषन देत॥

    (धृतराष्ट्रवाच)

    कहौ विदुर आनंदमति, जन्म लग्न को भाव।
    तुमते और प्रवीण को, हित कै बोल्यो राव॥

    (विदुरउवाच)

    मैं विचारि देखी लगन, कही न मौपै जाय।
    मेरो बिलगु न मानिये, सब विधि देहुँ बताय॥

    जेठो सुत ऐसो भयो, भलो न करिहै काज।
    कुलहि कलंक लगाइ है, अरु खोवै सब राज॥

    (नाराचछंद)

    भलो बुरो गनै नहीं समूह गोत संहरै।
    लहै न सीख एकहू सबै कुकर्म्म सो करै॥
    न राखुपुत्र भूप नीर माहिं सो बहाइये।
    सदा अलीनता करै सुगेह में न चाहिये॥
    भये कितेक पुत्र और राजकाज ते करे।
    विचार और है न भूप बैन सो मैन धरै॥

    (गांधारीउवाच)

    नबोलु मूढ़ झूठ सो, भलो न तीहि भावई।
    बोलाय तोहिं लीजिये, इहां सु क्यों न जावई॥

    (दोहा)

    भीषम विदुर उठे तहीं, यों कहि कै अकुलाय।
    जेठो सुत कुल संहरै, कुलहि कलंक लगाय॥

    (चौपाई)

    दिन दिन बाढ़त वै सौ भाई।
    यह सब पांडु नृपति सुधि पाई॥ 
    फूले अंग-अंग दीनो दान।
    सब याचक को राख्यो मान॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजय मुक्तावली (पृष्ठ 18)
    • संपादक : खेमराज श्रीकृष्णदास
    • रचनाकार : छत्र कवि
    • प्रकाशन : श्री वेंकटेश्वर छापाखाना
    • संस्करण : 1896

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