ओ गयउ सिसिरु वणतिण दहंतु।
महुमास मणोहरु इत्थ पंतु॥
गिरिमलयसमीरणु णिरू सरंतु।
मयणग्गि विओइहि विफ्फुरंतु॥
संकोवि जणइ सुहं विआसु।
विअसंतु रवन्नउ दह दिसासु॥
णवकुसुमपत्त हुय विविहवेसि।
अइ रेहइ णवसर रइविसेसि॥
बहुविविहराइ घणमणहरेहि।
सियसावरत्तपुफ्फंवरेहि॥
पंगुरणिहिँ चच्चिउ तणु विचित्तु।
मिलि सहियहि गेउ गिरंति णित्तु॥
महमहिउ अंगि वहु गंधमोउ।
णं तरिण (तरुणि) पमुक्कउ सिसिर सोउ॥
तं पिक्खिवि मइ मज्झहि सहीय।
लंकोडउ पढ़ियउ बल्लहहीय॥
गयउ गिम्हु अइ दुसहु वरिसु उव्विन्नियइ।
सरउ गयउ अइकट्ठि हिमंतु पवन्नियइ॥
सिसिंर फरसु वुल्लीणु कहव रोवंतियइ।
दुक्करु गमियइ एहु णाहु सुमरंतियइ॥
वाहिज्जइ नवकिसलयकरेहिँ।
महुमास लच्छि णं तरुवरेहिँ॥
रुणझुण करेहि वणि भमरु छुद्ध।
केवयकलीहि रसगंधलुद्ध॥
विज्झंति परुप्पर तरु लिहंति।
कंटग्ग तिक्ख ते णहु गणंति॥
तणु दिज्जइ रसियह रसह लोहि।
णहु पाउ गणिज्जइ, पिम्ममोहि॥
महु पिक्खवि विभिउ मणिहि हुूउ।
सुणि पहिय! कहिउ रवणिज्ज रूउ॥
पज्जलंत विरहग्गि तिव्व झालाउलं।
मयरद्धवि गज्जंतु लहरि घण भाउलं॥
सहवि दुसहु दुत्तर विचरिज्जइ सब्भयं।
मह णेहह किवि दुग्गु वणिज्जइ णिव्भयं॥
किंसुयइ कसिण घणरत्तवास।
पच्चक्ख पलासइ धुय पलास॥
सवि दुस्सह हूय पहंजणेण।
संजणिउ असुहु विसुहंजणेण॥
निवडंत रेणु धरपिंजरीहि।
अहिययर तविय णवमंजरीहि॥
मरु सियलु वाइ महि सीयलंतु।
णहु जणइ सीउ णंं खिवइ तंतु॥
जसु नामु अलिक्कउ कहइ लोउ।
णहु हरइ खणद्ध असोउसोउ॥
कंदप्पि दप्पि संतविय अंगि।
साहार णाहु ण सहार अंगि॥
लहि छिद्दु वियंभिउ विरहघोरु।
करि तंडउ सुणिउ रहंत मोरु॥
सिहि चडिउ पिक्खि मायंदसाह।
सुणि पंथिय जं मइ पढ़िय गाह॥
दूइज्जउ दूइय वरहिणीहिँ कयहरिस णट्टवरहम्मि।
गयणे पसरियणवदुम घणभंती मुणिय पुण दुम्मं॥
इह गाह पढ़िवि उट्ठिय रुवंत।
चिर जुन्न दुक्ख मणि संभरंत॥
विरहरिग झाल पज्जलिथ अंगि।
जज्जरियउ वाणिहिँ तणु अणंगि॥
खणु मुणिउ दुसहु जमकालपासु।
णव कुसमिहि सोहिउ दस दिसासु॥
गय णिवड णिरंतर गयणि चूय।
णव मंजरि तत्थ वसंत हूय॥
तहि सिहरि सुरत्तय किसणकाय।
उच्चरहि भरहु जणु विविह भाय॥
अइ मणहरु पत्तु मणोहरीउ।
उच्चरहिँ सरसु महुयर झुणीउ॥
कांरड करहि तह कीर भाइ।
कारुन पउक्कउ तह कुणाइ॥
अइ एरिस मयणपरव्वसीउ।
कह कहव धरंती कट्ठि जीउ॥
जलरहिय मेह संतविअ काइ।
किम कोइल कलरउ सहण जाइ॥
रमणीयण रत्थिहि परिभमंति।
तूरारवि तिहुयण बहिरयंति॥
चच्चरिहि गेउ झुणि करिवि तालु।
णच्चियइ अउव्व वसंतयालु॥
घड निविड हारि परिखिल्लरीहिँ।
रणझुण रउ मेहल किंकिणीहिँ॥
गज्जंति तरुणि णवजुव्वणीहिँ।
सुणि पढ़िय गाह पिअकंखिरीहिँ॥
एआरिसंमि समए घणदिणरहसोयरंमि लोयंमि।
अच्चहियं मह हियए कंदप्पो खिवइ सरजालं॥
जइ अणक्खरु कहिउ मइ पहिय।
घणदुक्खाउन्नियह मयणअग्गिविरहिणि पलित्तिहि।
तं फरसउ मिल्हि तुहु विणयमग्गि पभणिज्ज झत्तिहि।
तिमि जंपिय जिम कुवइ णहु तं पभणिय जं जुत्तु।
आसीसिवि वरकामिणिहि व्ट्टाऊ पडिउत्तु॥
वन प्रांतर को दग्ध करता हुआ शिशिर चला गया और यहाँ मनोरम मधुमास आया। विरहियों की कामाग्नि को विस्तार देता हुआ मलय गिरि समीर निरंतर चलने लगा। यह तन में संकोच और मन में सुख उत्पन्न करता है। दसों दिशाओं में रमणीयता फैल रही है। नए कुसुम-पत्र विविध वर्णी हो गए। जल से भरे सरोवर रति से शोभित लगते हैं। अनेक मनोहर रागों से और धवल-रक्तिम पुष्पों और वस्त्रों से अपने शरीर को सजाकर कामिनियाँ अपनी सखियों के साथ नित्य गीत गाती है। विविध गंध आमोद से अंग-अंग महकने लगे। मानो सूर्य ने शिशिर शोक त्याग दिया, यह देखकर प्रिय सखियों के बीच मैंने लंकोडक पढ़ा। दुःसह ग्रीष्म गया, उद्विग्नतापूर्वक वर्षा बीती और कष्ट से शरद बीता। हेमंत आया, रोती हुई मैंने शिशिर किसी प्रकार बिताया। लेकिन प्रिय का स्मरण करती हुई मेरे लिए यह वसंत बिताना अत्यंत दुष्कर है। मानो वसंत-लक्ष्मी को तरु अपने नव किसलयरूपी कराँसे ला रहे हैं। केतकी कली के रस-गंध का लोभी भ्रमर वन में रुनझुन करता है। वे भ्रमर पुष्पों का मधु चाटते हुए परस्पर विध जाते हैं। वे तीखे काँटों की परवाह नहीं करते। रसिक लोग रस लोभ में शरीर त्याग देते हैं। प्रेम और मोह में पाप की परवाह नहीं की जाती है। पथिक! मधुमास देखकर मुझे मन में आश्चर्य हुआ। मैंने जो रमणीय छंद कहा उसे सुनो!
दुःसह अलंघ्य गर्जमान काम को, जो जलती हुई विरह की तीव्र ज्वाला से उसी प्रकार आकुल है, जिस प्रकार वडवाग्नि से समुद्र आकुल रहता है और जो घनी तरंगों से उसी प्रकार आकुल है, जिस प्रकार समुद्र हुआ करता है, सहकर भी लोग जोख़िम उठाकर घूम रहे हैं, किंतु मेरा प्रिय मेरे प्रेम के लिए अप्राप्य है, वह बिना किसी भय या जोखिम उठाए, निर्भय होकर विचरण कर रहा है। पलाश पर मानों काले गाढ़े रक्त की बारिश हुई है। पलाश निश्चित रूप से मांसाहारी है। प्रचंड वायु के कारण सब कुछ दुःसह हो गया है। सुखद शीतल वायु भी दुःख ही पैदा करता है। लगातार पुष्पपराग झड़ते रहने से पृथ्वी लाल और अधिक उष्ण हो गई है। धरा को शीतल करती हुई वायु चलती है किंतु वह शीत नहीं, ताप पैदा करती है। अशोक, जिसे लोगों ने झूठा नाम दे रखा है; वह आधे क्षण के भी लिए भी शोक नहीं हरता। मदन दंभ से अंगों को पीड़ित करता है, सहकार अंगों को सहारा नहीं देता। विरह अवसर पाकर घोर जम्हाई लेता है, मोरों की ध्वनि सुन पड़ती है। शिखी को मकरंद शाखा पर चढ़े देखकर जो गाहा मैंने पढ़ी, हे पथिक! उसे सुनो।
मयूरियों को प्रसन्न देखकर मुझे कष्ट हुआ। गगन में फैली मेघमाला को नवद्रुममाला की भाँति देखकर मैं फिर दुःखी हुई। अपने चिर दुख का स्मरण करती हुई विरहिणी यह गाहा पढ़कर रोती हुई उठी। उसके अंग विरहाग्नि से प्रज्वलित हो उठे और शरीर को अनंग ने बाणों से घायल कर दिया। एक क्षण के लिए विरहिणी को यम पाश का अनुभव हुआ। दसों दिशाएँ सुंदर पुष्पों से शोभित हो गईं। गगन में घने आम्रवृक्षों का प्रसार हो गया। नव मंजरियों से वहाँ भी वसंत हो गया। सुंदर रक्तिम वृक्षों पर काली कोकिलाएँ मानों भरतमुनि द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार गान कर रही है। अत्यंत मनोहर ऋतु आ गई। मधुकर सरस ध्वनि करते हैं। शुक प्रेम पूर्वक नृत्य करते हैं, वे करुण शब्द करते हैं। ऐसे में मदन के वशीभूत हुई विरहिणियाँ अत्यंत कष्टपूर्वक किसी तरह प्राण धारण करती हैं! जल रहित मेघ काया को कष्ट देते हैं। कोयल का कलरव कैसे सहा जाए! रमणियाँ गलियों में घूमती हैं। तीव्र ध्वनि से त्रिभुवन बहरा हो रहा है। हार पहनकर अनेक प्रकार की आंगिक चेष्टाएँ करती स्त्रियों द्वारा ताल द्वारा चचंरी गीत-ध्वनि के साथ अपूर्व वसंत ताल नाचा जा रहा है। उनकी मेखलाओं का रुनझुन शब्द सुनाई पड़ता है। नव यौवन तरुणियाँ प्रसन्न होती हैं। उन्हें देखकर विरहिणी ने यह गाहा पढ़ा।
ऐसे समय में, जब धरा पर दिन इतने उत्तेजक हो गए हैं, मेरे हृदय में मदन तीखे वाणों की चोट करता है। हे पथिक! मैं गहरे दुख से उद्विग्न हूँ और विरहाग्नि से पीड़ित हूँ। मेरे द्वारा प्रिय के प्रति जो कठोर बातें कही गई हैं, उसमें से कठोरता को त्यागकरअपने विवेक से से जो उचित पड़े वैसे ही कहना। ऐसा कहना जिससे प्रिय कोप न करे। इसके बाद आशीष देकर कामिनी ने बटोही को विदा दी।
- पुस्तक : संदेश रासक (पृष्ठ 190)
- रचनाकार : अब्दुल रहमान
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1991
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