भारत-भारती / वर्तमान खंड / कृषि और कृषक
krishai aur krishak
अब पूर्व की-सी अन्न की होती नहीं उत्पत्ति है,
पर क्या इसी से अब हमारी घट रही संपत्ति है?
यदि अन्य देशों को यहाँ से अन्न जाना बंद हो—
तो देश फिर संपन्न हो, क्रंदन रुके, आनंद हो॥
वह उर्वरापन भूमि का कम हो गया है, क्यों न हो?
होता नहीं कुछ यत्न उसका, यत्न कैसे हो, कहो?
करते नहीं कृषक परिश्रम, और वे कैसे करें?
कर-वृद्धि है जब साथ तब क्यों वे वृथा श्रम कर मरें?
सौ में पचासी जन यहाँ निर्वाह कृषि पर कर रहे,
पाकर करोड़ों अर्द्धभोजन सर्द आहें भर रहे।
जब पेट की ही पड़ रही फिर और की क्या बात है;
'होती नहीं है भक्ति भूखे' उक्ति यह विख्यात है॥
कृषि-कर्म को उत्कर्षता सर्वत्र विश्रुत है सही,
पर देख अपने कृषकों को चित्त में आता यही—
हा दैव! क्या जीते हुए आजन्म मरना था उन्हें?
भिक्षुक बनाते पर विधे! कर्षक न करना था उन्हें॥
कृषि में अपेक्षा वृष्टि की रहती हमें अब है सदा,
होता जहाँ वैषम्य उसमें क्या कहें फिर आपदा।
रहता अवर्षण से हो! अब जो हमारा हाल है,
दृष्टांत उसका इन दिनों गुजरात का दुष्काल है॥
था एक ऐसा भी समय पड़ता अकाल न था यहाँ,
हो या न हो वर्षा जलाशय थे यथेष्ट जहाँ-तहाँ।
भारत पढ़ो, देवर्षि ने है क्या युधिष्ठिर से कहा—
“कृषि-कार्य वर्षा की अपेक्षा के बिना तो हो रहा?
केवल अवर्षण ही नहीं, अतिवृष्टि का भी कष्ट है;
बढ़ कर प्रलय-सम प्रबल जल सर्वस्व करता नष्ट है;
“दैवोऽपि दुर्बलघातकः” अथवा अभाग्य कहें इसे?
किंवा कहो, निज कर्म का मिलता नहीं है फल किसे?
अब ऋतु-विपर्यय तो यहाँ आवास ही-सा है किए,
होती प्रकृति में भी विकृति हा! भाग्यहीनों के लिए।
हेमंत में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है,
पावस-निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है!
हो जाए अच्छी भी फसल पर लाभ कृषकों को कहाँ?
खाते, खवाई, बीज-ऋण से हैं रँगे रखे यहाँ।
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में,
अधपेट रह कर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में!
पानी बना कर रक्त का, कृषि कृषक करते हैं यहाँ,
फिर भी अभागे भूख से दिन-रात मरते हैं यहाँ।
सब बेचना पड़ता उन्हें निज अन्न वह निरुपाय है,
बस चार पैसे से अधिक पड़ती न दैनिक आय है!
जब अन्य देशों के कृषक संपत्ति में भरपूर हैं—
लाते कि जिनसे आठ रुपया रोज़ के मजदूर हैं।
तब चार पैसे रोज़ ही पाते यहाँ कर्षक अहो!
कैसे चले संसार उनका, किस तरह निर्वाह हो?
बीता नहीं बहु काल उस औरंगजेबी को अभी,
करके स्मरण जिसका कि हिंदू काँप उठते हैं सभी;
उस दुःसमय का चावलों का आठ मन का भाव है,
पर आठ सेर नहीं रहा अब, क्या अपूर्व अभाव है॥
होती नहीं है कृषि यहाँ पूरी तरह से अब कभी,
यद्यपि शुभाशा चित्त में होती हमें है जब कभी।
पाला कहीं, ओले कहीं, लगता कहीं कुछ रोग है,
पहले शुभाशा, फिर निराशा, दैव! कैसा योग है?
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा-सा जल रहा,
चल रहा सनसन पवन, तन से पसीना ढल रहा!
देखो, कृषक शोणित सुखा कर हल तथापि चला रहे,
किस लोभ से इस आँच में वे निज शरीर जला रहे!
मध्याह्न है, उनकी स्त्रियाँ ले रोटियाँ पहुँची वहीं,
हैं रोटियाँ रूखी, खबर है शाक की हमको नहीं!
संतोष से खाकर उन्हें वे, काम में फिर लग गए,
भर पेट भोजन पा गए तो भाग्य मानों जग गए!॥
उन कृषक-बंधुओं की दशा पर नित्य रोती है दया,
हिम, ताप, वृष्टि-सहिष्णु जिनका रंग काला पड़ गया!
नारी-सुलभ सुकुमारता उनमें नहीं है नाम को,
वे कर्कशानी क्यों न हों, देखो न उनके काम को!!
गोबर उठातीं, थापती हैं, भोगतीं, आयास वे,
कृषि काटतीं, लेतीं परोहे, खोदती हैं घास वे!
गृहकार्य जितने और हैं करतीं वही संपन्न हैं,
तो भी कदाचित् ही कभी भर पेट पाती अन्न हैं॥
कुछ रात रहते जाग कर चक्की चलाने बैठतीं,
हम सच कहेंगे, उस समय वे गीत गाने बैठतीं!
पर क्या कहें, उस गीत से क्या लाभ पाने बैठतीं,
वे सुख बुलाने बैठतीं, या दुख भुलाने बैठतीं!!
घनघोर वर्षा हो रही है, गगन गर्जन कर रहा,
घर से निकलने को कड़क कर वज्र वर्जन कर रहा!
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं,
किस लोभ से वे आज भी लेते नहीं विश्राम हैं?
बाहर निकलना मौत है, आँधी अँधेरी रात है,
आ:शीत कैसा पड़ रहा है, थरथराता गात है!
तो भी कृषक ईंधन जलाकर खेत पर हैं जागते,
वह लाभ कैसा है न जिसका लोभ अब भी त्यागते॥
यह अन्न तो लेंगे विदेशी, लाभ क्या उनको कहो?
मिलता उन्हें जो अर्द्धभोजन विघ्न उसमें भी न हो!
कहते इसी से हैं कि क्या आजन्म मरना था उन्हें!
भिक्षुक बनाते पर विधे! कर्षक न करना था उन्हें!
हैं वे सभ्य तथा अशिक्षित, भाव उनके भ्रष्ट हैं;
दुख-भार से सुविचार मानों हो गए सब नष्ट हैं!
अपनी समुन्नति के उन्हें कुछ भी उपाय न सूझते,
अपना हिताहित भी न कुछ वे हैं समझते चूकते!!
सज्ञान कैसे हों, उन्हें संयोग ही मिलता नहीं,
विख्यात कमलालय कमल भी दिन बिना खिलता नहीं!
है पेट से ही पेट की पड़ती उन्हें, वे क्या करें!
वे ग्वाल हो जीते रहें या छात्र बन भूखों मरें?
संप्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उसको ज्ञान है,
है वायु कैसा चल रहा, इसका न कुछ भी ध्यान है!
मानों भुवन से भिन्न उनका दूसरा ही लोक है,
शशि-सूर्य हैं, फिर भी कहीं उसमें नहीं आलोक है!
भर पेट भोजन ही चरम सुख वे अकिंचन मानते,
पर साथ ही दुर्भाग्यवश दुर्लभ उसे हैं जानते!
दिन दुःख के हैं भर रहे करते हुए संतोष वे,
लाचार हैं, निज भाग्य को ही दे रहे हैं दोष वे॥
उनको निरंतर दुःख ने अब कर दिया यों दीन है—
सुख-कल्पना तक से हुआ उनका हृदय अब हीन है!
आलोक का अनुभव कभी जन्मांध कर सकते नहीं,
मरु-जंतु सहसा सुरसरी का ध्यान धर सकते नहीं॥
ग्रामीण गीत यदा कदा ये गान करते हैं सही,
है फाग उनका राग बहुधा और उत्सव भी वही।
पर चित्त को वे दीन जन किस भाँति बहलाया करें?
क्या आँसुओं से ही उसे वे नित्य नहलाया करें?॥
तुम सभ्य हो,'मार्केट' जिनका सात सागर पार है,
पर ग्राम की वह हाट ही उनका 'बड़ा बाजार' है।
तुम हो विदेशों से मँगाते माल लाखों का यहाँ,
पर वे अकिंचन नमक-गुड़ ही मोल लेते हैं वहाँ॥
करते सहर्ष प्रदर्शिनी की सैर तुम कौतुक भरी,
(क्या लाभ उससे ही उठाते, बात है, यह दूसरी।)
वे हो सका तो ग्राम्य-मेले देख कर ही धन्य हैं,
मनिहार की दूकान से जिनमें सुदृश्य न अन्य हैं॥
तुम दार्शनिक हो ईश का अस्तित्व सत्य न मानते;
हैं भूत-प्रेतों से अधिक वे भी न उसको जानते।
हा देव! इस ऋषि भूमि का यह आज कैसा हाल है!
तू काल! सचमुच काल ही है, क्रूर और कराल है॥
पाठक! न यह कह बैठना, छेड़ा कहाँ का राग है,
यह फूल कैसा है कि इसमें गंध है, न पराग है?
है यह कथा नीरस तदपि इसमें हमारा भाग है,
निकले बिना बाहर नहीं रहती हृदय की आग है॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 91)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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