है कृषि प्रधान प्रसिद्ध भारत और कृषि की यह दशा!
होकर रसा यह नीरसा अब हो गई है कर्कशा।
अच्छी उपज होती नहीं है, भूमि बहु परती पड़ी;
गोवंश का वध ही यहाँ है याद आता हर घड़ी!
यूरोप में कल के हलों से काम होता है सही,
जुत क्यों न जाती हो अरब में ऊँट के हल से मही।
गो-वंश पर ही किंतु है यह देश अवलंबित सदा,
पर दीन भारत! हाय तेरे भाग्य में है क्या बदा!॥
है भूमि बंध्या हो रही, वृष-जाति दिन-दिन घट रही;
घी-दूध दुर्लभ हो रहा, बल-वीर्य की जड़ कट रही।
गो-वंश के उपकार की सब ओर आज पुकार है;
तो भी यहाँ उसका निरंतर हो रहा संहार है!
वह भी समय था एक जो अब स्वप्न जा सकता कहा,
घी तीस सेर विशुद्ध रुपए में हमें मिलता रहा।
देहात में भी सेर भर से अधिक मिलता नहीं!
दुर्बल हुए हम आज यों-तनुभार भी मिलता नहीं॥
दाँतों तले तृण दाबकर हैं दीन गायें कह रहीं—
हम पशु तथा तुम हो मनुज, पर योग्य क्या तुमको यही?
हमने तुम्हें माँ की तरह है दूध पीने को दिया,
देकर कसाई को हमें तुमने हमारा वध किया!
जो जन हमारे मांस से निज देह पुष्टि विचार के—
उदरस्थ हमको कर रहे हैं, क्रूरता से मार के।
मालूम होता है सदा, धारे रहेंगे देह वे—
या साथ ही ले जाएँगे उसको बिना संदेह वे!
हा! दूध पीकर भी हमारा पुष्ट होते हो नहीं,
दधि, घृत तथा तक्रादि से भी तुष्ट होते हो नहीं।
तुम खून पीना चाहते हो, तो यथेष्ट वही सही;
नर-योनि हो, तुम धन्य हो, तुम जो करो थोड़ा वही!
क्या वश हमारा है भला, हम दीन हैं, बलहीन हैं;
मारो कि पालो, कुछ करो तुम, हम सदैव अधीन हैं।
प्रभु के यहाँ से भी कदाचित् आज हम असहाय हैं,
इससे अधिक क्या कहें, हा! हम तुम्हारी गाय हैं॥
बच्चे हमारे भूख से रहते समक्ष धीर हैं,
करके न उनका सोच कुछ देती तुम्हें हम क्षीर हैं।
चर कर विपिन में घास फिर आती तुम्हारे पास हैं,
होकर बड़े वे वत्स भी बनते तुम्हारे दास हैं॥
“जारी रहा क्रम यदि यहाँ यों ही हमारे नाश का—
तो अस्त समझो सूर्य भारत-भाग्य के आकाश का।
जो तनिक हरयाली रही वह भी न रहने पाएगी,
यह स्वर्ण-भारत-भूमि बस मरघट-मही बन जाएगी!
बहुधा हमारे हेतु ही विग्रह यहाँ होता खड़ा;
सहवासियों में बैर का जो बीज बोता है बड़ा।
जो हे मुसलमानो! हमें कुर्बान करना धर्म है—
तो देश की यों हानि करना क्या नहीं दुष्कर्म है?
बीती अनेक शताब्दियाँ जिस देश में रहते तुम्हें,
क्या लाज आवेगी उसे अपना 'वतन' कहते तुम्हें?
तुम लोग भारत को कभी समझो अरब से कम नहीं,
यद्यपि जगत में और कोई देश इसके सम नहीं॥
जिस देश के वर-वायु से सकुटुंब तुम हो जी रहे,
मिष्ठान जिसका खा रहे, पीयूष-सा जल पी रहे।
जो अंत में तनु को तुम्हारे ठौर देगा गोद में,
कर्तव्य क्या तुमको नहीं रखना उसे आमोद में॥
जिसमें बुजुर्गों के तुम्हारे हैं शरीर मिले हुए,
जिसने उगाए हैं वहाँ छायार्थ वृक्ष खिले हुए।
क्या मान्य 'मरारिव' की तरह तुमको न होगी वह धरा?
अजमेर की दरगाह का कर ध्यान सोचो तो ज़रा॥
हिंदू हमें जब पालते हैं धर्म अपना मान के,
रक्षा करो तब तुम हमारी देश-हित ही जान के।
यदि तुम कहो—अब हम कलों से काम ले लेंगे सभी,
तो पूछती हैं हम कि क्या वे दूध भी देंगी कभी?
हिंदू तथा तुम सब चढ़े हो एक नौका पर यहाँ,
जो एक का होगा हित तो दूसरे का हित कहाँ?
सप्रेम हिल-मिल कर चलो, यात्रा सुखद होगी तभी;
पीछे हुआ सो हो गया, अब सामने देखो सभी॥
हा! शोचनीय किसे नहीं गो वंश का यह ह्रास है?
इस पाप से ही बढ़ रहा क्या यह हमारा त्रास है!
घृत और दुग्धाभाव से दुर्बल हुए हम रो रहे,
होकर अशक्त, अकाल में ही काल-कवलित हो रहे॥
जो नित्य नूतन व्याधियाँ करती यहाँ आखेट हैं,
क्या दीन-दुर्बल ही अधिक होते न उनकी भेट हैं?
'देवोऽपि दुर्बलघातकः' फिर याद आता है यहाँ,
'छिद्रोष्वनर्था' वाक्य पर भी ध्यान जाता है यहाँ॥
- पुस्तक : भारत भारती (पृष्ठ 98)
- रचनाकार : मैथलीशरण गुप्त
- प्रकाशन : साहित्य सदन चिरगाँव झाँसी
- संस्करण : 1984
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