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श्री शिव-वंदना

shri shiw wandna

जगन्नाथदास रत्नाकर

जगन्नाथदास रत्नाकर

श्री शिव-वंदना

जगन्नाथदास रत्नाकर

और अधिकजगन्नाथदास रत्नाकर

    अरक धतूरौ चाबि रहत सदाई आप,

    भोग जथाजोग बगरावत घने रहैं।

    कहै रतनाकर त्यौं संपति असेस देत,

    निज कटि सेस धारि आनँद सने रहैं॥

    ललकि लुटाइ दिव्य भूषन अदूषन जे,

    दोषाकर भाल भव-भूषन गने रहैं।

    पुरट पटंबर के अखिल अटंबर के,

    बाँटि सब अंबर दिगंबर बने रहैं॥

    बेर-बेर बिलखि बिधाता सौं कुबेर कहै,

    हम पैं तिहारी परै संपति सँभारी ना।

    कहै रतनाकर लुटाए देत संभु सबै,

    देखी कहूँ ऐसी मति दान-मतवारी ना॥

    रावरे कुअंकहू की टारै मरजाद सबै,

    वाकी पै निरंकुस कुटेब टरै टारी ना।

    सब हमही से किए देत अब कोऊ करै,

    सोन-टोकरी हू दिए नोकरी हमारी ना॥

    सुमति गजानन की देत कबिराजनि कौं,

    राजनि पै बीरता खड़ानन की छाए देत।

    कहै रतनाकर त्यों अन्नपूरना की सुचि,

    रुचिर रसोई जग-बीच बरताए देत॥

    चेतै घरबार ना बिलोकि द्वार मंगन कौं,

    सीस धरी गंग हूँ उमंग सौं बहाए देत।

    द्वै ही एक अंगुल गयौ है रहि चाँदी जानि,

    मादी चंदचूर चंद चूर कै लुटाए देत॥

    कैंसैं सूलपानि ह्वै अपार खल खंडि देते,

    जन-मन कौ जौ सूल पानि करते नहीं।

    कहै रत्नाकर बात हम काँची कहैं,

    साँची कहिबे में पुनि नैंकु डरते नहीं॥

    पावते कहाँ तैं गंग विष के निवारन कौं,

    कान जौ भगीरथ की आन धरते नहीं।

    ल्यावते लुकार धौं कहाँ तैं काम-जारन कौं,

    जौ पै तीन लोक के त्रिताप हरते नहीं।

    गंग की धार जो सिधारि जटा-जूटनि में,

    भूप विनती बिनु धधाइ धरा धैहै ना।

    कहै रतनाकर तरंग भंगहू की नाहिं,

    जो निज उमंग और अंग दरसैहै ना॥

    यह करुनाहूँ की कदंबिनी नाथ सुनौ,

    ताप बिनुहीं जो द्रवि आप झर लैहै ना।

    यह तौ कृपा की धुनि-धार है अपार संभु,

    मानस ढरारे में तिहारे रुकि रैहै ना॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रत्नाकर रचनावली (पृष्ठ 478)
    • संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
    • रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
    • प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
    • संस्करण : 2009

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