श्री हनुमद्महिमा
shri hanumadmahima
संतत हिमायत-हमेव मैं छक्यौ सो रहै,
ताकी छाक छनक उछाकि को सकत है।
कहै रतनाकर जमी जो जग ताकी धाक,
ताहि फलफंदनि फलाकि को सकत है॥
ताके सामना की करि कामना कुटिल कूर,
मूढ़ मदचूर ह्वै न थाकि को सकत है।
बाँह दै बसावै जाहि बाँकौ हनुमान ताहि,
तनक तरेरि तीखैं ताकि को सकत है॥
दलिमलि मजात दर्प दुष्ट-दल-दानव कौ,
पूरै आयु पिसुन-पिसाचनि पत्यारी की।
कहै रतनाकर बिलाति सुख-स्वप्न-साथ,
बाधक बिपच्छि-पच्छ-राच्छस कुचारी की॥
बिमुख-बितंडी-प्रेत-मंडी खंड-खंड होति,
अंडबंड बात चाई-भूत-भीर सारी की।
बैरिनि के फेफरे फलकि फटि फाँक होत,
हाँक होत बाँके बजरंग थाक-धारी की॥
आपि अवलंब जगदंब अवधेसस्वरी कों,
अरि की असोक-बाटिका धरि उतारैगौ।
कहै रतनाकर त्यौं अच्छय-घमंड खंडि,
चंडकर-पूत-दीठि चंडनि पै पारैगौ॥
दैहै अमी-मूलिका सुमित्रानंदन रच्छन कौं,
बेगि हीं बिपच्छिनि के पच्छनि कौं छारैगौ।
भारी-भीर-भंजन प्रभंजन कौ पूत बीर,
गंजन गनीम कौ गुमान करि डारैगौ॥
कैधौं बलसागर की उद्धत तरंग तुंग,
बोरन कौं सेना रजनीचर अकूत की।
कहै रतनाकर कै संत-मान-रच्छन कौं,
महिमा बसिष्ठ-दंड परम प्रभूत की॥
जानकी के सोक जलजान की मथूल किधौं,
कैधौं बर ब्रज की बिभूति पुरहूत की।
कठिन कराल काल-दंड की रुजा है राम,
जीत की धुजा है कै भुजा है पौनपूत की॥
याही तैं हँकारत हुते ना हनुमान होति,
हलबल भारी तुम्हैं जन-रखवारी में।
कहै रतनाकर पै आनन उदास चाहि,
लीनी थाहि बात जो न सकुचि उचारी में॥
कर भुजंगनि न फेरौ औ न हेरौ गदा,
इतनौ बखेरौ ना हिमायत हमारी में।
दलिमलि जाइहैं बिपच्छिनि के पच्छ सबै,
तनक सरीखी तीखी ताकनि तिहारी में॥
ऐहौ हनुमान मान एतौ जो बढ़ायौ जग,
राखियै तौ ध्यान आन-बान के निभाए कौ।
कहै रतनाकर बिसारियै न कानि बर,
बिरद सँभारियै कृपाल के कहाए कौ॥
और की न पौरि पै पठैयै मन ठैयै यहै,
आपही बनैयै सब काज अपनाए कौ।
फेरियै निगाह ना गुनाह हूँ किए पै लाख,
राखियौ उछाह निज बाँह दै बसाए कौ॥
- पुस्तक : रत्नाकर रचनावली (पृष्ठ 482)
- संपादक : कमलाशंकर त्रिपाठी
- रचनाकार : जगन्नाथदास रत्नाकर
- प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
- संस्करण : 2009
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